सनातन पद्धति के अनुसार वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न करने वालें हिन्दू लोग क्यों देखते है लग्न के शुभ दिन, नक्षत्र, मुहूर्त, भद्रा और तिथि। क्यों कहा जाता है 16 संस्कारों में एक संस्कार है विवाह। सारी जानकारी जानें विस्तार से।
हिंदू (सनातन) धर्म में विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि एक धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार है। इसे जीवन के सोलह संस्कारों (षोडश संस्कार) में से एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। विवाह जीवन के गृहस्थ आश्रम का शुभारंभ करता है, जो चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास) में सबसे महत्वपूर्ण है।
विवाह के महत्व के कारक क्या होता है
1. धार्मिक उद्देश्य
विवाह का मुख्य उद्देश्य धर्म पर चलते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना। साथ ही श्रृष्टि के संचालन हेतु संतानोत्पत्ति करना। रति क्रिया कर आध्यात्मिक व सांसारिक सुख की प्राप्ति करना है।
2. संस्कारों की निरंतरता
विवाह संतानोत्पत्ति द्वारा वंश परंपरा और धार्मिक कर्तव्यों को आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करता है।
3. धर्म का पालन
पति-पत्नी मिलकर परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों को निभाते हैं। यह सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संतुलन बनाए रखने का आधार है।
4. आध्यात्मिक उन्नति
पति-पत्नी का रिश्ता एक-दूसरे को जीवन में सही मार्ग पर ले जाने और आध्यात्मिक उत्थान के लिए सहायक होता है।
5. सामाजिक संरचना का निर्माण
विवाह पारिवारिक संबंधों को मजबूत करता है और समाज को एकजुट बनाए रखता है।
विवाह संस्कार का स्वरूप क्या होता है
विवाह संस्कार को एक यज्ञ माना जाता है। इसमें वेदों और पुराणों के मंत्रों का उच्चारण करते हुए पति-पत्नी अग्नि को साक्षी मानकर जीवनभर साथ निभाने का वचन देते हैं और लेते हैं। विवाह के दौरान सप्तपदी (सात फेरे), सिंदूर दान और मंगलसूत्र बंधन जैसे अनुष्ठान किए जाते हैं, जो इस संस्कार की महत्ता को दर्शाते हैं।
विवाह के प्रकार (प्राचीन सनातन धर्मग्रंथों के अनुसार)
मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों के अनुसार, सनातन धर्म में विवाह के 8 प्रकार बताए गए हैं। जो समाज और व्यक्ति की स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न है।
1. ब्राह्म विवाह
सबसे उत्तम विवाह माना गया।
इस विवाह में कन्याओं को धर्म और संस्कारों का पालन करने वाले वर का वरण करने का विधान है। बिना दहेज का विवाह होने चाहिए।
2. दैव विवाह
इस विवाह के दौरान कन्याओं को यज्ञ के दौरान सभी यजमान बनकर पाणिग्रहण अर्थात विवाह करने का विधान है।
3. आर्ष विवाह
वर के परिवार द्वारा कन्या के पिता को गाय, बैल आदि का दान देकर किया गया विवाह।
4. प्राजापत्य विवाह
इस विवाह के दौरान वर और कन्या पक्ष आपसी सहमति से किया गया विवाह।
5. गांधर्व विवाह
प्रेम विवाह का प्राचीन विवाह का ही रूप है। वर और कन्या के आपसी प्रेम और सहमति से होने वाला विवाह।
6. आसुर विवाह
दहेज लेकर या देकर किया गया विवाह द्वारा किया गया विवाह इस श्रेणी में आता है।
7. राक्षस विवाह
युद्ध में विजय प्राप्त कर बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर किया गया विवाह।
8. पैशाच विवाह
यह विवाह अनुचित और निंदनीय माना गया। इसमें कन्या को धोखे से या उसके सम्मति के हड़पकर प्राप्त किया जाता है।
इनमें से सबसे स्वीकार्य प्रकार:
ब्राह्म, दैव, आर्ष, और प्राजापत्य विवाह को धर्मसम्मत और श्रेष्ठ माना गया है।
विवाह संस्कार का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व
1. सप्तपदी का महत्व:
विवाह के दौरान वर-वधू सात वचन लेते हैं और देते हैं। ये वचन आपसी सहयोग, विश्वास, और धर्म का पालन सुनिश्चित करते हैं।
2. अग्नि साक्षी:
अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेने का अर्थ है कि अग्नि देवता विवाह की गवाही देते हैं।
3. मंगलसूत्र और सिंदूर:
विवाह के बाद मंगलसूत्र और सिंदूर पति-पत्नी के बीच अटूट बंधन और सुरक्षा का प्रतीक है।
4. विवाह को यज्ञ के रूप में देखना:
विवाह को यज्ञ के रूप में मान्यता दी गई है, जिसमें पति-पत्नी मिलकर अपने जीवन को धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की ओर अग्रसर करते हैं।
सोलह संस्कार (षोडश संस्कार) में विवाह का स्थान
सनातन धर्म में 16 संस्कार (षोडश संस्कार) मनुष्य के जीवन के विभिन्न चरणों में संपन्न किए जाने वाले धार्मिक और सामाजिक संस्कार हैं। ये संस्कार व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक रूप से शुद्ध एवं समृद्ध करने के उद्देश्य से किए जाते हैं। इनमें गर्भधारण से लेकर अंत्येष्टि तक के संस्कार शामिल हैं। नीचे प्रत्येक संस्कार का विस्तृत वर्णन दिया गया है:
षोडश संस्कार की सूची:
1. गर्भाधान
2. पुंसवन
3. सीमंतोन्नयन
4. जातकर्म
5. नामकरण
6. निष्क्रमण
7. अन्नप्राशन
8. चूड़ाकर्म
9. कर्णवेध
10. विद्यारंभ
11. उपनयन
12. वेदारंभ
13. केशांत
14. समावर्तन
15. विवाह
16. अंत्येष्टि
सोलहों संस्कार को जानें विस्तार से
1. गर्भाधान संस्कार
यह संस्कार गर्भधारण की प्रक्रिया को पवित्र बनाने के लिए किया जाता है। विवाह के बाद, संतान उत्पत्ति की इच्छा रखने वाले दंपति इस संस्कार को संपन्न करते हैं। यह संस्कार संतान को शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक रूप से योग्य बनाने की कामना से किया जाता है
2. पुंसवन संस्कार
गर्भाधान के बाद तीसरे महीने में किया जाने वाला यह संस्कार गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य और उसकी सुरक्षा के लिए किया जाता है। इसमें विशेष प्रार्थनाएं की जाती हैं ताकि संतान योग्य और सद्गुणी हो।
3. सीमंतोन्नयन संस्कार
गर्भवती महिला के मानसिक स्वास्थ्य और प्रसन्नता को सुनिश्चित करने के लिए गर्भ के छठे या आठवें महीने में यह संस्कार किया जाता है। इसे "गोद भराई" के रूप में भी जाना जाता है। इसमें महिला को आशीर्वाद दिया जाता है और शुभ मंत्रों का उच्चारण किया जाता है
4. जातकर्म संस्कार
शिशु के जन्म के तुरंत बाद यह संस्कार किया जाता है। इसमें नवजात को घी और शहद चटाया जाता है, और पिता उसके कान में वेद मंत्र का उच्चारण करते हैं। यह संस्कार शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास को शुभ बनाने के लिए किया जाता है।
5. नामकरण संस्कार
शिशु के जन्म के 11वें या 13 वें दिन पर यह संस्कार किया जाता है। इसमें शिशु का नामकरण किया जाता है। यह नाम उसकी कुंडली, ग्रह-नक्षत्र और परिवार की परंपरा के अनुसार रखा जाता है।
6. निष्क्रमण संस्कार
शिशु के चार महीने का होने पर यह संस्कार संपन्न किया जाता है। इसमें बच्चे को पहली बार घर से बाहर ले जाया जाता है और उसे सूर्य या चंद्रमा का दर्शन कराया जाता है।
7. अन्नप्राशन संस्कार
यह संस्कार शिशु के छठे महीने में किया जाता है। इसमें शिशु को पहली बार अन्न (चावल, खीर आदि) खिलाया जाता है। यह संस्कार बच्चे के पोषण और अच्छे स्वास्थ्य के लिए किया जाता है।
8. चूड़ाकरण संस्कार
यह संस्कार शिशु के पहले या तीसरे वर्ष में किया जाता है। इसमें बच्चे के सिर के बालों को मुंडन कर हटाया जाता है। इसे शुद्धिकरण की प्रक्रिया माना जाता है, जो बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए शुभ होती है।
9. कर्णवेध संस्कार
शिशु के कान छिदवाने का यह संस्कार धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। यह संस्कार स्वास्थ्य लाभ और सौंदर्य वृद्धि के लिए किया जाता है।
10. विद्यारंभ संस्कार
यह संस्कार शिशु के पांचवें वर्ष में संपन्न किया जाता है। इसमें बच्चे को पहली बार अक्षर ज्ञान कराया जाता है। गुरु या माता-पिता बच्चे को पढ़ाई का महत्व समझाते हैं और उसकी शिक्षा की शुरुआत करते हैं।
11. उपनयन संस्कार
यह संस्कार बालक के आठवें या बारहवें वर्ष में किया जाता है। इसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहते हैं। इसमें बालक को जनेऊ पहनाई जाती है और उसे गुरुकुल में प्रवेश कराकर शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति दी जाती है। यह संस्कार आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत मानी जाती है।
12. वेदारंभ संस्कार
उपनयन के बाद बालक को वेदों का अध्ययन कराया जाता है। यह संस्कार उसे धर्म, संस्कृति, और समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को समझाने के लिए किया जाता है।
13. केशांत संस्कार
बालक की किशोरावस्था में प्रवेश के समय यह संस्कार किया जाता है। इसमें बालक के चेहरे के बाल पहली बार काटे जाते हैं। यह संस्कार युवा अवस्था में प्रवेश का प्रतीक है।
14. समावर्तन संस्कार
गुरुकुल में शिक्षा समाप्त करने के बाद बालक को घर लौटने की अनुमति देने के लिए यह संस्कार किया जाता है। इसे स्नातक संस्कार भी कहते हैं। इसमें बालक को समाज में अपने कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा दी जाती है।
15. विवाह संस्कार
विवाह संस्कार हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इसमें पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के साथ धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की प्राप्ति के लिए जीवनसाथी बनते हैं। यह संस्कार सामाजिक और आध्यात्मिक संबंध को मजबूत करता है।
16. अंत्येष्टि संस्कार
मनुष्य के जीवन का अंतिम संस्कार अंत्येष्टि है। इसमें मृत शरीर का दाह संस्कार किया जाता है। इसे आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति के लिए किया जाता है। इस संस्कार के दौरान वैदिक मंत्रों और स्थानीय विधियों का पालन किया जाता है।
क्यों किए जातें हैं संस्कार
षोडश संस्कार हिंदू धर्म में मनुष्य के जीवन को पवित्र और व्यवस्थित बनाने के लिए किए जाते हैं। ये संस्कार न केवल व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक उन्नति के लिए होते हैं, बल्कि समाज और धर्म के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को भी सुनिश्चित करते हैं। यह जीवन के हर महत्वपूर्ण चरण को संस्कारों से जोड़कर व्यक्ति को एक सकारात्मक दिशा प्रदान करते हैं।
समाज पर विवाह का प्रभाव
विवाह संस्कार न केवल व्यक्ति के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ है, बल्कि यह समाज को भी मजबूत और स्थिर बनाता है। यह दो परिवारों के बीच एक नया संबंध बनाता है। समाज में नैतिकता और संस्कृति का प्रचार करता है। अगली पीढ़ी के लिए धर्म, ज्ञान, और परंपराओं का हस्तांतरण सुनिश्चित करता है।
विवाह के लिए शुभ मुहूर्त चुनने के क्या है विधान
1. शुभ तिथि और दिन
विवाह के लिए सबसे शुभ तिथियां होती हैं द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, और त्रयोदशी। अमावस्या, पूर्णिमा और चतुर्दशी को विवाह के लिए वर्जित माना जाता है।
2. शुभ नक्षत्र क्या है
मृगशिरा, रोहिणी, रेवती, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, और हस्त नक्षत्र विवाह के लिए उत्तम माने जाते हैं।
3. भद्रा की क्या रहेगी स्थिति
भद्रा में विवाह वर्जित माना जाता है। इसलिए भद्रा का विशेष ध्यान रखा जाता है कि वह मुहूर्त के दौरान न हो।
4. योग की स्थिति क्या है
विवाह के लिए शुभ योग जैसे सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, रवि योग और द्विपुष्कर योग को प्राथमिकता दी जाती है।
5. चंद्रमा की स्थिति पर दृष्टि
विवाह के समय चंद्रमा का शुभ स्थिति में होना अनिवार्य है। चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव में चंद्रमा हो तो विवाह करना वर्जित होता है।
डिस्क्लेमर
सनातन धर्म में विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार है। हमने यह लेख लिखने के पहले अपने निकटवर्ती विद्वान ब्राह्मणों से विचार विमर्श कर लिखा है। धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन कर लिखा गया है। साथ ही इंटरनेट का भी अवलोकन भी किया गया है। लेख लिखने में पूरी ईमानदारी बरती गई है। परंतु पूरी सत्यता की गारंटी हम नहीं लेते हैं।