अमावस्या तिथि को पूर्वजों का तर्पण करने का महत्व सनातन धर्म और संस्कृति में गहरा है। इसका मुख्य कारण यह है कि अमावस्या के दिन चंद्रमा दिखाई नहीं देता, और यह समय पितरों (पूर्वजों) को समर्पित माना जाता है।
सनातन धर्म में यह विश्वास किया जाता है कि अमावस्या के दिन पितरों की आत्माएं पृथ्वी पर आती हैं और तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध जैसे कर्मकांड करने से उन्हें शांति और संतुष्टि मिलती है।
तर्पण का अर्थ होता है जल और तिल अर्पित करके पितरों को संतुष्ट करना। ऐसा माना जाता है कि तर्पण और श्राद्ध कर्म करने से पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उनकी आत्मा को मुक्ति मिलती है।
विशेष रूप से श्राद्ध पक्ष (पितृ पक्ष) में, अमावस्या का दिन अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि यह दिन पितरों को स्मरण और श्रद्धा व्यक्त करने के लिए सबसे शुभ माना जाता है।
पितृपक्ष की समापन 02 अक्टूबर दिन बुधवार को सर्वपितृ अमावस्या के दिन होगा। सर्वपितृ अमावस्या को पितृ अमावस्या, पितृ मोक्ष अमावस्या और महालया अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है।
अमावस्या तिथि पितृ पक्ष का आखिरी दिन होता है। इस दिन वैसे पितरों को श्रद्धा किया जाता है जिसका तिथि ज्ञात न हो। साथ ही वैसे पितरों को भी श्राद्ध किया जाता है जिसका नाम भी ज्ञात नहीं है।
चतुर्दशी तिथि 02 अक्टूबर, दिन बुधवार को वैसे लोगों का श्राद्ध कर्म किया जाता है।
जिनके अकाल मृत्य हुआ है। अकाल मृत्यु हुए आत्माओं की तिलांजलि या पिंडदान चतुर्दशी तिथि को ही करनी चाहिए।
चतुर्दशी और अमावस्या तिथि खासकर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन दोनों दिन वैसे आत्माओं को तर्पण किया जाता है इसकी मृत्यु आसमान या तिथि की जानकारी ना हो साथ में वैसे आत्मा इसके संबंध में हम जानते नहीं है परंतु खून का रिश्ता जरूर है। जिसे आधुनिक भाषा में डीएनए कहते हैं।
धर्म सिन्धु निर्णय पुराण के अनुसार श्राद्धकर्म करने के लिए सालभर में 96 (९६) अवसर बतलाए गए हैं।
एक वर्ष में 12 अमावास्याएं आती है। उसी प्रकार पुणादि तिथियां 04 दिन, मन्वादि तिथियां 14 दिन, संक्रान्ति तिथियां 12 दिन, वैधृति योग तिथियां 12 दिन, व्यतिपात योग तिथियां 12 दिन, पितृपक्ष में अमावस्या तिथि को पूर्वजों का तर्पण करने का महत्व सनातन धर्म और संस्कृति में गहरा है। इसका मुख्य कारण यह है कि अमावस्या के दिन चंद्रमा दिखाई नहीं देता, और यह समय पितरों (पूर्वजों) को समर्पित माना जाता है।
अमावस्या तिथि पितृ पक्ष का आखिरी दिन होता है। इस दिन वैसे पितरों को श्रद्धा किया जाता है जिसका तिथि ज्ञात न हो। साथ ही वैसे पितरों को भी श्राद्ध किया जाता है जिसका नाम भी ज्ञात नहीं है।
चतुर्दशी तिथि 02 अक्टूबर, दिन बुधवार को वैसे लोगों का श्राद्ध कर्म किया जाता है।
जिनके अकाल मृत्य हुआ है। अकाल मृत्यु हुए आत्माओं की तिलांजलि या पिंडदान चतुर्दशी तिथि को ही करनी चाहिए।
चतुर्दशी और अमावस्या तिथि खासकर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन दोनों दिन वैसे आत्माओं को तर्पण किया जाता है इसकी मृत्यु आसमान या तिथि की जानकारी ना हो साथ में वैसे आत्मा इसके संबंध में हम जानते नहीं है परंतु खून का रिश्ता जरूर है। जिसे आधुनिक भाषा में डीएनए कहते हैं।
पितरों को कैसे करें विदाई
पितृ पक्ष में संपूर्ण सम्मान देने के बाद भी चौकी पूर्ण आदर भाव से श्रद्धा पूर्वक विदाई की जाती है विदाई वाला दिन अर्थात अमावस्या की रात्रि मानी जाती है।
उनके नाम से दीपदान करना बहुत जरूरी होता है और अपने पितरों को खुशी-खुशी विदाई किया जाता है।
विधि के अनुसार किसी नदी तट पर उनके नाम से 14 दीप जलाकर उन्हें पानी में छोड़ दिया जाता है और उसके बाद अपने पितरों को विदा किया जाता है।
लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि दीपक का मुख दक्षिण दिशा की ओर हो और जाने अनजाने में हुई गलती के लिए अपने पितरों से माफी भी मांग लेना चाहिए और अपने परिवार के मंगल कामना की आशीष भी मांगे।
यदि आसपास नदी नहीं हो तो यह कार्य आप पीपल के पेड़ के नीचे भी कर सकते हैं। पीपल के पेड़ के नीचे 14 दीया प्रकाशित करें और 14 दीया का मुंह दक्षिण की ओर होना चाहिए और भूल चूक के लिए माफी मांगे परिवार की समृद्धि के लिए उनसे आशीष मांगे। अगर पीपल का वृक्ष आसपास ना हो तो अपने घर में ही कम से कम 3, 5, 7, 9, 11 और 14 दिया दक्षिण की ओर मुख करके जलने से पितर काफी खुश होते हैं।
श्राद्ध कर्म में किन वस्तुओं का करें
दान
श्राद्ध कर्म करने के बाद कौन-कौन सी वस्तुएं दान करनी चाहिए। दान करने से कौन सा फल मिलता है। जानें विस्तार से।
गाय का दान धार्मिक दृष्टि से सभी दानों में श्रेष्ठ माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में किया गया गाय का दान शुभ अवसर प्रदान करने वाला और धन संपत्ति देने वाला होता है।
तिल का काम श्राद्ध के हर कार्य में होता है। इसलिए तिल का महत्व हर तरह से श्राद्ध में महत्वपूर्ण है। दान की दृष्टि से काले तिल का दान करने से संकट काल से रक्षा करता है।
अब हम जानेंगे थाली में परोसते समय खाद्य पदार्थों का क्रम कैसा रहेगा। साथ ही कैसा रहेगा स्थान। जानें श्राद्ध कर्म शास्त्रों के अनुसार।
श्राद्ध के दिन खिलाये जानें वाली थाली को चार भागों में बांटा गया हैं। थाली के बाएं, दाएं, सामने और मध्य ये चार भाग होते हैं। जिसे हम श्राद्ध चौरस खाद्य पदार्थ युक्त थाल कहते हैं।
भोजन परोसते समय थाली में देसी घी का लेप लगाने से पितर खुश होते हैं।थाली के मध्य भाग में चावल अर्थात भात परोसा जाना चाहिए।
दाईं ओर खीर, भाजी-तरकारी अर्थात सब्जी परोसना चाहिए।
थाली के बाईं ओर नीबू, चटनी, आचार और कचूमर परोसें।
थाली के सामने सांबार, कढी, दाल, पापड, पकौडी एवं उडद के बने बडे़ और लड्डू जैसे खाद्य पदार्थ परोसें जानें चाहिए।
अंत में चावल के ऊपर देसी घी और दही परोसना उत्तम और फलदाई होगा।
शास्त्रों के अनुसार पितरों के लिए तैयार किए गए थाली को हमेशा उलटी दिशा में रखकर खाद्य पदार्थों को परोसें।
खाद्य पदार्थो से रज-तमात्मक तरंगें उत्पन्न होकर मृत आत्मा के लिए अन्न ग्रहण करने का माध्यम बन जाते हैं।
अपने पुरखों और ब्राह्मणों को भोजन परोसते समय एक को कम एवं दूसरे को अधिक, एक को अच्छा तो दूसरे को खराब ऐसा बर्ताव न करें।
श्राद्धपक्ष के दिनों में तो, इस प्रकार के भेदभाव बिलकुल भी नहीं करना चाहिए।
श्राद्धविधि पूर्ण हुए बिना छोटे बच्चे, अतिथि, गौ, कौवा अथवा अन्य किसी को भी श्राद्ध का भोजन न करने दें।
डिस्क्लेमर
यह लेख पितृ पक्ष को लेकर लिखा गया है। तमाम जानकारी धर्मशास्त्र और गरुड़ पुराण सहित अन्य ग्रंथों से लिया गया है। साथ ही विद्वान पंडितों से भी विचार विमर्श कर लिखा गया है। कुछ कंटेंट इंटरनेट से भी लिया गया है। लेख लिखने का मुख्य उद्देश्य सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करना और पितृपक्ष के महत्व को सरल भाषा में लोगों के सामने प्रस्तुत कर ज्ञान का ज्योत जलाना है।