जीवित्पुत्रिका 14 सितंबर 2025 को जानें संपूर्ण जानकारी

भद्रा पद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि 14 सितंबर 2025 दिन रविवार को जीवित्पुत्रिका व्रत मनाया जायेगा।

जीवित्पुत्रिका व्रत, जिसे जिउतिया व्रत भी कहते हैं, मुख्य रूप से माताओं द्वारा अपने पुत्रों की लंबी आयु, स्वास्थ्य, और सुखी जीवन के लिए किया जाता है। यह व्रत विशेष रूप से उत्तर भारत, बिहार, उत्तर प्रदेश, और नेपाल के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय है। यह अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है।

पूजा विधि

1. स्नान और संकल्प:
प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें और व्रत का संकल्प लें।

2. मिट्टी या गोबर से मूर्ति बनाएं:
जीमूतवाहन और नाग की प्रतीकात्मक मूर्ति बनाएं।

3. पूजन सामग्री:
फल, फूल, धूप, दीपक, पान, सुपारी, चावल, वस्त्र, और मिठाई इत्यादि।

4. पूजा विधि:

दीया जलाकर जीमूतवाहन की कथा सुनें।

आरती करें और परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करें।

5. निर्जला व्रत:
यह व्रत निर्जल रहता है। माताएं संतान की मंगलकामना के लिए दिनभर उपवास करती हैं।

6. पारण:
अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है

तिथि: भद्रा पद कृष्ण पक्ष की अष्टमी

2025 में तिथि: 14 अक्टूबर, दिन रविवार 

जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व

जीवित्पुत्रिका व्रत, जिसे जिउतिया व्रत भी कहते हैं, मुख्य रूप से माताओं द्वारा अपने पुत्रों की लंबी आयु, स्वास्थ्य, और सुखी जीवन के लिए किया जाता है। यह व्रत विशेष रूप से उत्तर भारत, बिहार, उत्तर प्रदेश, और नेपाल के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय है। यह अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है।

पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, महाभारत काल में यह व्रत भगवान जीमूतवाहन के त्याग और करुणा को समर्पित है। कथा के अनुसार, जीमूतवाहन एक महान राजा थे जिन्होंने अपने राज्य, परिवार और ऐश्वर्य को छोड़कर सेवा और धर्म का मार्ग चुना।

उन्होंने एक नागवंशी स्त्री को यह वचन दिया कि वे उसके पुत्र को गरुड़ देवता से बचाएंगे।

जीमूतवाहन स्वयं गरुड़ के समक्ष अपने प्राणों की आहुति देने के लिए प्रस्तुत हुए।

गरुड़ उनकी निःस्वार्थता से प्रभावित हुए और वचन दिया कि वे कभी नागवंश के प्राणियों को हानि नहीं पहुंचाएंगे।
जीमूतवाहन के इसी त्याग के प्रतीक स्वरूप यह व्रत किया जाता है।
जीवित्पुत्रिका व्रत की पौराणिक कथाएं

जीवित्पुत्रिका व्रत की कई पौराणिक कथाएं हैं, जो इसकी महत्ता और आस्था को प्रकट करती हैं। ये कथाएं मुख्य रूप से त्याग, करुणा, और मातृत्व की शक्ति को दर्शाती हैं।

1. जीमूतवाहन की कथा

यह व्रत भगवान जीमूतवाहन के त्याग और करुणा को समर्पित है।

जीमूतवाहन एक धर्मपरायण राजा थे। उन्होंने राजपाट त्यागकर समाज सेवा का मार्ग चुना।

एक दिन उन्हें एक नागवंशी स्त्री रोती हुई मिली, जिसने बताया कि उसके पुत्र को गरुड़ देवता खा जाएंगे।

जीमूतवाहन ने स्त्री को आश्वस्त किया और उसके पुत्र को बचाने के लिए स्वयं गरुड़ के सामने अपने प्राण देने प्रस्तुत हुए।

जब गरुड़ ने जीमूतवाहन के त्याग को देखा, तो वह प्रभावित हुए और नागों को न खाने का वचन दिया।
इस कथा से यह व्रत माताओं की अपने बच्चों के प्रति निःस्वार्थ भक्ति और समर्पण को दिखाता है।

2. सत्यवान और सावित्री की कथा

सत्यवान और सावित्री की कथा भी इस व्रत से जुड़ी मानी जाती है।

सावित्री ने अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लेने के लिए कठोर तपस्या की।

उसकी भक्ति और निष्ठा से यमराज प्रसन्न हुए और सत्यवान को जीवनदान दिया।
यह कथा माताओं के अपने बच्चों और परिवार के प्रति समर्पण और तपस्या को दर्शाती है।

3. चील और सियारिन की कथा

यह कथा व्रत की महत्ता को और भी स्पष्ट करती है।

एक बार जंगल में एक चील और सियारिन ने व्रत किया। चील ने व्रत के नियमों का पालन किया, लेकिन सियारिन ने बीच में ही भोजन कर लिया।

व्रत के प्रभाव से चील को अगले जन्म में सुखद जीवन मिला, जबकि सियारिन को कष्ट झेलने पड़े।
इस कथा से यह संदेश मिलता है कि व्रत के नियमों का पालन करना अति आवश्यक है।

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