नवरात्र में जानें खोईछा भराई, सिंदूर खेला, कुमकुम अर्चना और खंडित प्रतिमाओं का होता क्या है

शारदीय नवरात्र 2023 आरंभ हो गया है। इस दौरान सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दसवीं तिथि को मां दुर्गे को अनेक विधियां से पूजा अर्चना की जाती है। इन विधियों में खोईचा भराई, सिंदूर खेला एवं कुमकुम अर्चना विधि प्रमुख है। साथ ही जानें अगर मां दुर्गा की प्रतिमा खंडित हो गई है तो उसका निवारण कैसे किया जाए। इन सभी विषयों पर विस्तार से जानकारी इस लेख में दी गई है। जरूर पढ़े।
अगर आप मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजन कर रहें हैं और उसी दौरान प्रतिमा खंडित हो जाए तो उस मूर्ति को क्या-क्या करना होगा। जानें विस्तार से

टूट जाए प्रतिमा तो क्या करें आप
प्राण प्रतिष्ठा कर स्थापित मूर्ति अगर नीचे गिर गईं हैं, परंतु भग्न (टूट-फूट) नहीं हुई, तो प्रायश्‍चित नहीं लगेगा। ऐसी स्थिति में केवल उस देवी-देवता से क्षमा मांग लेना ही अच्छा होगा।
इसके बाद तिलहोम, पंचामृत पूजा एवं दुग्धाभिषेक आदि विधियों को किसी विद्वान पंडितों के मार्गदर्शन में अनुष्ठान करवाने से आपका कल्याण होगा।

अगर प्रतिमा हो गई है भंग तो क्या करें
पूजा करने के लिए स्थापित प्रतिमा अगर नीचे गिरकर भंग हो जाए, तो उसे अशुभ संकेत माना जाता है।
साथ ही देवी-देवताओं का मुकुट गिरकर टूटना भी अशुभ संकेत ही होता है। यह संकेत आने वाले भीषण संकट की पूर्व सूचना हो सकती है। ऐसी स्थिति में उस प्रतिमा को बहते हुए जल धारा में विसर्जन कर नए प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

प्रतिमा दो तरह की होती है स्थिर और चल
देवालय (मंदिर) की प्रतिमा स्थित मूर्ति होती है जबकि पूजा पंडाल में चल प्रतिमा स्थापित की जाती है।
देवालय की प्रतिमा स्थिर होती है। उस प्रतिमा को कभी स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसके गिरने का सबाल ही नहीं उठता।
इसके बाद भी जब वह प्रतिमा गिर जाती है, तब वह भंग होने से अथवा वह घिस जाने के कारण ही गिरती है। ऐसे स्थिति में उस प्रतिमा को बहते जल धारा में विसर्जित कर नई प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा विधि-विधान से करनी चाहिए।

दूसरी ओर पंडालों में स्थापित की गई उत्सव प्रतिमा चल होने से उसे अन्य जगहों पर स्थानांतरित किया जा सकता है। ऐसी प्रतिमा अगर भंग न होकर केवल जमीन पर गिर जाए, तो उसके लिए तिलहोम, पंचामृत पूजा और दुग्धाभिषेक आदि विधियों को किसी विद्वान पंडितों के मार्गदर्शन में अनुष्ठान करवानी चाहिए।
इसके बाद उस प्रतिमा को पहले जैसे पूजा पुनः किया जा सकता है। परंतु अगर वह भंग हो हुई है, तो उस प्रतिमा को बहते जल धारा में विसर्जन कर वहां नई प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

घर, पंडाल तथा देवालय में स्थापित भंग प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करने की विधि
प्रतिमा भंग हो जाना, यह आने वाली संकट की आधार सूत्र सूचना होती है। इसलिए शास्त्रों में घर, पंडाल और देवालय में विद्यमान भंग प्रतिमा का बहते जल धारा में विसर्जन करने चाहिए।
इसके बाद नई प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करने से पहले अघोर होम, तत्त्वोत्तारण विधि अर्थात भंग प्रतिमा में विद्यमान तत्त्व को निकालकर उसे नई प्रतिमा में प्रस्थापित (समाहित) करने की विधियां शास्त्रों में बताया गया है।
इन विधियों को करने से अनिष्ट का निवारण होता है और शांति मिलती है। केवल इतना ही अंतर है कि घर और पंडालों में इन विधियों की मात्रा अल्प स्वरूप में होती है और इन विधियों को देवालयों में शास्त्रोक्त पद्धति से करना पडता है।

अब जानें कुमकुम अर्चना विधि
देवी को कुमकुम अर्चना करने की दो विधियां बताई गई है। कुमकुम अर्चना करने से होने वाले सूक्ष्म-स्तरीय लाभ आदि का उल्लेख इस लेख में किया गया है, जो आपको पढ़ने को मिलेगा।

देवी दुर्गा की प्रतिमा पर कुमकुम अर्चन कैसे करें
देवी दुर्गा के नामों की जाप करते हुए चुटकी भर कुमकुम या रोली देवी दुर्गा के चरणों से शुरू कर देवी के मस्तक तक चढ़ाने चाहिए। ऐसा न कर सके तो, देवी दुर्गा का नाम जाप करते हुए उन्हें कुमकुम से आच्छादित करें।

दूसरी विधि
कुछ स्थानों पर देवी दुर्गा को कुमकुम चढ़ाते समय कुमकुम केवल उनके चरणों में अर्पित किया जाता है।
शास्त्रों में बताया गया है कि मूल कार्यरत शक्ति तत्त्व की निर्माण लाल रंग के प्रकाश से हुई है। इस कारण शक्ति तत्त्व के रूप में देवी दुर्गा की पूजा कुमकुम से किया जाता है।
कुमकुम से उत्पन्न गंध-तरंगों की सुगंध ब्रह्मांड अंतर्गत शक्ति तत्त्व की तरंगें अल्प काल अवधि में आकृष्ट होती हैं। इसलिए प्रतिमा में सत्य गुण तत्त्व को जागृत करने के लिए लाल रंग के पदार्थ तथा देवी तत्त्व को प्रसन्न करने वाली गंध तरंगों के प्रतीक के रूप में कुमकुम चढ़ाने को देवी पूजन में प्रथम स्थान दिया गया है।
मूल शक्ति तत्त्व के बीज का गंध भी कुमकुम से फैलने वाली सुगंध से समानता दर्शाता है। इसलिए देवी दुर्गा को जागृत करने के लिए कुमकुम एक प्रभावी माध्यम का काम करता है।
कुमकुम में शक्ति तत्व आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है। इसलिए देवी दुर्गा की प्रतिमा को कुमकुम अर्चना करने से वह जागृत हो जाती है। जागृत प्रतिमा में शक्ति तत्त्व कुमकुम से आता है। इसके बाद जब वह कुमकुम हम लगाते हैं, तो मां दुर्गा की शक्ति हमें प्राप्त होती है।

कुमकुम अर्चना करने से हमें मिलती है देवी शक्ति
देवी दुर्गा के श्रृंगार में उपयोग होने वाले कुमकुम को मस्तक पर लगाने से, प्रार्थना करने और नाम जाप करने से अच्छा अनुभव होता है और मन उत्साहित रहता है।
दूसरी ओर हम मंदिरों में कुमकुम अर्चना करने जाते है। आपके द्वारा दिए गए कुमकुम से मंदिर के पुजारी प्रतिमाओं का अर्चन करते हैं। उसके बाद प्रार्थना कर वह कुमकुम आपको दे देते हैं।
कुमकुम लेते वक्त आपको मंदिर या पंडाल में स्थापित देवी दुर्गा से प्रार्थना करनी चाहिए। ‘हे देवी दुर्गा, इस कुमकुम लगाने से हमें शक्ति मिले, हम आपको प्रार्थना कर सके और नाम जाप का उत्तम फल हमें प्राप्त हो।
इसके बाद जब भी आप अपने माथे पर कुमकुम लगाते या लगाती हो। उसके बाद आपके मन में नाम जाप आरंभ हो जायेगा और आपके शरीर में एक अनोखे उत्साह उत्पन्न होने लगेगा।

मां दुर्गा की कैसे भरे आंचल
साड़ी और ब्लाउज (चोली) वस्त्र में नारियल रखकर देवी दुर्गा का आंचल भरने चाहिए। यह क्रिया देवी दुर्गा के दर्शन के समय किया जाने वाला एक प्रमुख विधि है। इसे शास्त्रों के विधि-विधान समझकर, इसे श्रद्धा और भाव पूर्ण करने से, आध्यात्मिक लाभ अधिक से अधिक श्रद्धालुओं को मिलता है।

देवी दुर्गा की आंचल भराई का क्या है महत्व ?
देवी दुर्गा को साडी एवं ब्लाउज़ (चोली) वस्त्र अर्पण कर देवी दुर्गा की आंचल भराई करने चाहिए। इसके बाद देवी दुर्गा की पूजन संपन्न करना चाहिए। देवी दुर्गा को साड़ी एवं चोली वस्त्र अर्पित करना अपनी आध्यात्मिक उन्नति अथवा कल्याण हेतु देवी दुर्गा के निर्गुण तत्त्व को सत्य गुण में आने का आवाहन करना कहते हैं।
सर्व पंचोपचार पूजा विधियां भगवान के निर्गुण रूप से संबंधित हैं। देवी दुर्गा की आंचल भराई करते समय कार्य की सफलता हेतु देवी दुर्गा से प्रार्थना की जाती है।
इससे पहले पंचोपचार विधि से पूजन कर देवी दुर्गा के निर्गुण तत्त्व को, साड़ी एवं ब्लाउज़ वस्त्र के द्वारा मूर्त सत्य गुण रूप में साकार होने के लिए साधकों को सहायता मिलती है।

देवी की आंचल भराई की उचित तरीके
उत्तर और पूर्व भारत में देवी दुर्गा को लाल चुनरी चढ़ाने की परंपरा हैं। लाल रंग शक्ति तत्त्व को सर्वाधिक आकृष्ट करता है। भारत के अधिकांश राज्यों में स्त्रियां साड़ी, ब्लाउज और नारियल से देवी दुर्गा की आंचल भरती हैं।
देवी दुर्गा को सूती अथवा रेशमी साडी समर्पित करने चाहिए, क्योंकि इन धागों में देवता से प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें ग्रहण करने एवं संजोए रखने की अपार क्षमता होती है ।

कैसे करें मां दुर्गे कि आंचल भराई
श्रद्धालुओं को एक थाली में साड़ी रखकर उस पर चोली, साड़ी और नारियल (नारियल की चोटी देवी की ओर रखें) तथा थोड़े से अरवा चावल भी रखें। नारियल की चोटी देवी दुर्गा की ओर रहने चाहिए। इसके बाद थाली में रखी सभी वस्तुएं अपने हाथों की अंजुलि में लेकर, हाथ अपनी छाती के समक्ष लाकर देवी दुर्गा के सामने खड़ होने चाहिए।
चैतन्य मिलान और आध्यात्मिक उन्नति हेतु देवी दुर्गा से भावपूर्वक प्रार्थना करें। इससे देवी तत्त्व के जागृत होने में सहायता मिलती है।
आंचल भराई की सामानों को देवी दुर्गा के चरणों में समर्पित करने के बाद उस पर अरवा चावल चढाएं।
देवी दुर्गा को अर्पित की गई साड़ी को संभव हो सके, तो स्वयं पहने और नारियल की मलई प्रसाद रूप में ग्रहण करने चाहिए।

देवी दुर्गा की आंचल भराई और परिणाम से लाभ
नारियल की चोटी की ओर देवी तत्त्व आकृष्ट होता है। इस तत्त्व को साड़ी और ब्लाऊज़ वस्त्र में समाहित करने में नारियल सहायता करता है। साथ ही नारियल की चोटी से उपजे तरंगों के कारण, मनुष्य के शरीर के आस-पास सुरक्षा कवच का निर्माण होने लगता है।
पृथ्वी तत्त्व की सहायता से, वस्त्र से सात्त्विक तरंगें प्रक्षेपित होती हैं। नारियल-पानी में विद्यमान आपतत्त्व की सहायता से प्रक्षेपित तरंगों के कारण, ये तरंगें गतिमान एवं कार्यरत होती हैं । इससे पूजक की शरीर के सभी ओर इन तरंगों के सुरक्षा-कवच की निर्मिति में सहायता मिलती है। साथ ही, साड़ी और ब्लाऊज़ में विद्यमान देवी तत्त्व की सात्त्विक तरंगें, आपकी प्राण देह एवं प्राणमय कोश की शुद्धिकरण में सहायक होती हैं।
अंजुलि छाती के सामने हो, इस प्रकार से खडे होने पर उत्पन्न मुद्रा, शरीर में चंद्रनाडी के कार्यरत होने में और मनोमय कोष में सत्त्व कणों की वृद्धि में सहायक होती है।
फलस्वरूप मन शांत रहता है। इस मुद्रा के कारण पूजक देवता के समक्ष अधिकाधिक नम्र बना रहता है। हाथों की उंगलियों द्वारा, देवता से प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगों के संक्रमण में सहायता मिलने से, शरीर में अनाहत चक्र कार्यरत होता है और पूजक का देवी दुर्गा के प्रति भाव जागृत होता है।
इससे उसकी स्थूल एवं सूक्ष्म देहों की शुद्धिकरण में सहायता मिलती है। देवी दुर्गा के प्रति भाव जितना अधिक होगा, उतने अधिक काल तक पूजा विधि से प्राप्त सात्त्विकता के स्थिर रहने में सहायता मिलती है।

कौन सी देवी को किस रंग के वस्त्र चढ़ाने चाहिए ?
देवी दुर्गा को लाल रंग की वस्त्र
देवी महालक्ष्मी को लाल और केसरिया, जिसमें 60 फीसदी लाल और 40 फीसदी केसरिया रंग होने चाहिए।
देवी लक्ष्मीजी को लाल और पीला वस्त्र, जिसमें 40 फीसदी लाल और 60 फीसदी पीला रंग होने चाहिए।
देवी सरस्वती को श्वेत अर्थात सफेद रंग की वस्त्र
देवी महा सरस्वती को श्वेत और लाल रंग की वस्त्र, जिसमें 60 फीसदी सफेद और 40 फीसदी लाल रंग।
देवी काली को जामूनी रंग की वस्त्र
देवी महाकाली को जामुनी और लाल रंग की वस्त्र, जिसमें 80 फीसदी जामुनी रंग और 20 फीसदी लाल रंग वस्त्र में होने चाहिए।

मां दुर्गा को 09 गज की साड़ी अर्पित करें
छह गज की साड़ी की अपेक्षा देवी दुर्गा को नौ गज की साड़ी अर्पित करना अधिक उचित और धर्म सम्मत क्यों होता है ? जानें विस्तार से।
देवी दुर्गा को नौ गज की साड़ी अर्पित करने का मतलब होता है कि देवी दुर्गा की नौ रूपों के माध्यम से कार्य करने का प्रतीक।
देवी और देवताओं के प्रति श्रद्धा भाव रखने वाले एवं गुरु कृपा योग के अनुसार समष्टि साधना करने वाला भक्त देवी को किसी भी प्रकार की साड़ी समर्पित कर सकता है। कारण यह कि अपेक्षित लाभ उसके भाव से ही होता है, परंतु प्राथमिक चरण का साधक अथवा कर्म कांड के अनुसार साधना करने वालों द्वारा प्रत्येक कृत्य नियमानुसार होना महत्त्वपूर्ण है। इसलिए देवी दुर्गा को छ: गज की अपेक्षा, नौ गज की साड़ी अर्पित करना उचित है।

देवी दुर्गा को अर्पित किए जाने वाले चोली वस्त्र त्रिकोणी क्यों होता है ?
त्रिकाणी आकार यह ब्रह्मा, विष्णु और शिव में से ब्रह्म की इच्छा शक्ति से संबंधित है।
ब्रह्मांड की इच्छा तरंगों का भ्रमण भी दाएं से बाएं की ओर त्रिकोणी आकार में संचालित होता रहता है। देवी दुर्गा को त्रिकोणी आकार का ब्लाउज (चोली) वस्त्र अर्पण करना अर्थात आपकी आध्यात्मिक उन्नति हो। इसके लिए आदिशक्ति देवी दुर्गा की इच्छाशक्ति प्रबल कर, उनकी कृपा दृष्टि प्राप्त करना मात्र है।
माता दुर्गा के नौ दिनों यानि नवरात्रि का त्योहार जहां आज विजयादशमी के साथ समाप्त हो गया है। वहीं पर नवरात्रि के अंतिम दिन पश्चिम बंगाल या झारखंड में दुर्गा पूजा की गई तो वहीं पर इस खास मौके पर आपने सिंदूर खेला की रस्म देखी होगी, तो क्या आपने सोचा है आखिर विसर्जन के दिन क्यों खेला जाता है सिंदूर खेला और क्या होती है इसकी मान्यता।

शारदीय नवरात्र के अंतिम दिन विजय दशमी को खेला जाता है सिंदूर

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आपको बताते चलें कि, बंगाल और झारखंड सहित देश के अन्य शहरों में रहने वाली बंगाली समुदाय की सुहागिन महिलाएं अपने पति के दीर्घायु की कामना कर खेलती है सिंदूर खेला। यह रस्म खासतौर पर विजय दशमी अर्थात विसर्जन के दिन मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित कर एक दूसरे को सिंदूर लगाकर खास रस्म को मनाती है और एक दूसरे को बधाइयां देती हैं।
बंगाल और झारखंड में इस मौके पर कई जगहों पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। जिसे हमलोग सिंदूर खेला कहते हैं।
वर्तमान परिवेश में इस खास मौके पर सुहागन महिलाओं के अलावा, लड़कियां, तलाकशुदा महिलाएं, विधवा और किन्नरों को अब सिंदूर खेला में पूजा कमेटी के लोग शामिल करने लगे है। सर्वविदित है कि, दुर्गा विसर्जन के दिन होने वाली सिंदूर खेला की रस्म में महिलाएं पान के पत्ते से मां के गालों को स्पर्श (सेकती) करती हैं। इसके बाद मां दुर्गा की मांग में सिंदूर भरते हुए मां की माथे पर भी सिंदूर लगती हैं।
सिंदूर की रस्म पूरी होने के बाद महिलाएं मां दुर्गा को पान, मौसमी फल और मिठाई का भोग लगाती है। इसके बाद विधि-विधान और निष्ठा पूर्वक मां की पूजा अर्चना कर पूजा स्थल पर उपस्थित सभी महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर मां से विनती करती है कि हे मां जगदंबा अगले वर्ष फिर दस दिनों के लिए मायके आना। साथ ही मां दुर्गा से अपनी सुहाग की लंबी आयु की कामना भी करती हैं। मान्यता है कि बंगाल में यह रस्म 450 से अधिक सालों से चली आ रही है। सुहागन महिलाओं के द्वारा इस रस्म को निभाने से सुहाग (पति) को लंबी उम्र का आशीर्वाद मां दुर्गा से प्राप्त होती है।

सिंदूर खेला, क्या है धार्मिक मान्यता जानें विस्तार से
पौराणिक मान्यता के अनुसार सिंदूर खेला की रस्म के बाद मां दुर्गा की विदाई के समय अपने-अपने परंपरा के अनुसार प्रथा निभाई जाती है। बंगाल के लोग यह मानते हैं कि नवरात्र के दिनों में देवी दुर्गा मायके आती हैं और 10 दिनों तक रुकने के बाद फिर से ससुराल चली जाती हैं। इसलिए जिस तरह मायके आने पर बेटियों की सेवा-सत्यकार की जाती है, ठीक वैसे ही नवरात्रि के दिनों में देवी दुर्गा की पूजा और सेवा-सत्यकार की जाती है।
इसलिए जैसे बेटियों को विदा करते समय खाने-पीने की चीजें और सुहाग की सामान सहित अन्य प्रकार की उपहार भेंट दी जाती है। ठीक वैसे ही देवी दुर्गा के विदाई के दिन भी उनके साथ पोटली में श्रृंगार का सामाना और खाने-पीने की चीजें रख दी जाती हैं। कैलाश तक पहुंचने में उनको रास्ते में कोई परेशानी न हो इसलिए उनके साथ यह सभी चीजें रखी जाती है।

डिस्क्लेमर
ऊपर लिखे चारों लेख शारदीय दुर्गा पूजा से संबंधित है। लेख लिखने के पहले विद्वान ब्राह्मण और ज्योतिषाचार्य से विचार विमर्श कर लिखा गया है। साथ ही धर्म शास्त्रों से भी कुछ बिंदुओं का अवलोकन किया गया है। इसी प्रकार इंटरनेट पर भी उपलब्ध सामग्रियों को भी लेख में समावेश किया गया है। लेख लिखने का मुख्य उद्देश्य सनातन धर्म की प्रचार प्रचार और सनातनियों को अपने धर्म के प्रति जागरूक करना है। अगर लिखने में कुछ भूल चूक हुई हो तो उसे पाठकगण क्षमा कर देंगे।

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