जीउतिया पर्व 06 अक्टूबर को है या 07 अक्टूबर को जानें विस्तार से

जीउतिया पर्व जिसे हम खुर-जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत कहते हैं। जानें कैसे करें विधि-विधान से पूजन

जीउतिया पर्व 06 अक्टूबर को होगा या 07 अक्टूबर को इसे लेकर छिड़ी है विवाद 

दोनों तिथियों में क्या है, विवाद जानें आचार्य और ज्योतिषाचार्य से हुई बातचीत का प्रमुख अंश और डोक्युमेंट।

बिहार, गया के आचार्य पंडित जीतेन्द्र उपाध्याय के अनुसार जीउतिया पर्व 06 अक्टूबर को पंचांग के अनुसार मनाया जायेगा।

आचार्य उपाध्याय का कहना है कि सिंधु निर्णय पुराण के अनुसार अष्टमी तिथि में ही जीउत वाहन भगवान का पूजा करनी चाहिए। पूजा के दौरान अष्टमी तिथि संध्या बेला भी होने चाहिए। 

उन्होंने कहा कि जीउतिया के दिन अष्टमी तिथि कम से कम तीन पहर होने चाहिए। दूसरी बात संध्या समय में अष्टमी तिथि होना जरूरी है क्योंकि जीउतिया की पूजा अष्टमी तिथि में ही करने चाहिए।

अष्टमी तिथि 06 अक्टूबर को संध्या समय में मिल रहा है। इसलिए जीउतिया पर्व शुक्रवार को मनाएं।

अष्टमी तिथि का शुभारंभ 06 अक्टूबर, दिन शुक्रवार को सुबह 06:34 से शुरू होकर 07 अक्टूबर, दिन शनिवार को सुबह 08:08 पर समाप्त हो जाएगा।

यह दोनों रिपोर्ट के अनुसार जीउतिया निर्जला व्रत 07 अक्टूबर को होगा।

वंश की वृद्धि और संतान की दीर्घायु की कामना कर महिलाएं तीन दिवसीय अश्विन कृष्ण पक्ष,अष्टमी तिथि को निर्जला जीउतिया व्रत रखती है। 

अगर आपके घर में कोई महिलाएं जिउतिया व्रत करती है, तो उनके लिए यह कथा पढ़ना जरूरी है, क्योंकि व्रत रखने में बहुत ही सहयोगी होगा।

जीउतिया व्रत करने का विधान

निर्जला जीउतिया व्रत इस बार अश्वनी कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि 06 अक्टूबर दिन शुक्रवार को रातभर व्रत रखना होगा। इसलिए नहाय-खाय 05 अक्टूबर को ही होगा। 06 अक्टूबर को पूजन के उपरांत रात भर व्रतधारियों को उपवास रखकर सात अक्टूबर को 10:21 बजे के बाद पारण करना पड़ता है।

जीउतिया के दिन चील और सियार की होती है पूजा

जीउतिया व्रत रखने वाली महिलाएं सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण की बालक रूप की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद चील और सियार की पूजा होती है। मिट्टी के बने चील और सियार को पाकुड़ वृक्ष के डाल पर स्थापित कर पूजा करने का विधान है।

नये वस्त्र पहनकर महिलाएं निर्जला व्रत रख शाम के समय पूजा करती है। पूजा के उपरांत कथा सुनती है। सुबह सूर्योदय के बाद महिलाएं फुलाए हुए बाजरे या जिंदा मछली को सबसे पहले निगलती है। इसके बाद भोजन कर व्रत तोड़ती है।

नहाए खाए के दिन क्या खाते हैं व्रतधारी महिलाएं

नहाए खाए के दिन क्या खाएं व्रती महिलाएं जानें विस्तार से। छठ की तरह जिउतिया व्रत पर नहाए खाए की परंपरा है। यह पर्व भी तीन दिवसीय है। पहला दिन सप्तमी तिथि को नहाए खाए, दूसरा दिन अष्टमी तिथि को निर्जला व्रत और तीसरा दिन नवमी तिथि को पारण किया जाता है।

इस बार नहाए खाए 05 अक्टूबर दिन गुरुवार को पड़ रहा है। अहले सुबह व्रतधारी महिलाएं हो सके तो गंगा नदी में नहाना सबसे उत्तम रहेगा। नहीं हो तो तालाब, नदी या घर में शुद्ध जल में गंगाजल डालकर स्नान करें। इसके बाद भगवान गोपाल श्रीकृष्ण के बाल रूप की आराधना करते हुए जीउतियां पर्व करने का संकल्प लें।

तदुपरांत नोनी का साग, मडुआ आटा से बनी रोटी, कंदा और सत्पुतिया झिंगी से बनी सब्जी खाती है।

जीउतियां के दिन सूर्य कन्या राशि में और चंद्रमा मिथुन राशि में रहेंगे। योग शिव रहेगा। नक्षत्र पुनर्वसु रहेगा। 

चर, गोधूलि या सायाह्य संध्या योग में करें महिलाएं जीउति वाहन भगवान की पूजा

06 अक्टूबर को चर मुहूर्त, गोधूलि मुहूर्त और सायाह्य संध्या मुहूर्त का संयोग संध्या समय मिल रहा है। महिलाएं इस मुहूर्त में पूजा कर अपनी पुत्र की दीर्घायु की कामना करें।

 चर मुहूर्त शाम को 04:34 बजे से लेकर 06:02 बजे तक रहेगा। उसी प्रकार शाम 05:50 बजे से लेकर 06:14 बजे तक गोधूलि मुहूर्त और सायाह्य मुहूर्त शाम 06:02 बजे से लेकर 07:15 बजे तक रहेगा।

इस दौरान महिलाएं भगवान श्रीकृष्ण, चिल और सियार की पूजा-अर्चना कर सकती हैं।

जीउतिया के दिन पंचांग के अनुसार कैसा रहेगा

आश्विन माह, कृष्ण पक्ष, अष्टमी तिथि जो 7 अक्टूबर को सुबह 08:08 बजे तक रहेगा। 

सूर्योदय सुबह 06:16 बजे और सूर्यास्त शाम 06:02 पर होगा। चंद्रोदय रात 11:22 बजे और चंद्रास्त रात 01:15 बजे पर है। सूर्य कन्या राशि में और चंद्रमा मिथुन राशि में स्थित रहेंगे। अयन दक्षिणायन दिशा में रहेगा। दिनमान 11 घंटा 45 मिनट और रात्रिमान 12 घंटा 15 मिनट का है।

आनन्दादि योग पद्मा रात 09:32 बजे तक, इसके बाद लुम्बक हो जायेगा। होमाहुति गुरु रात्रि 09:23 बजे तक इसके बाद राहु हो जायेगा। दिशाशूल पश्चिम, राहु कालवास दक्षिण-पूर्व, अग्निवास आकाश सुबह 06:34 बजे इसके बाद पाताल होगा। चंद्रवास पश्चिम दिशा में होगा।

पारण करने का उचित समय

निर्मला जिउतिया व्रत रखने वाली व्रतधारी महिलाएं 07 अक्टूबर की सुबह 10:32 बजे के बाद भोजन कर सकती है। 

दूसरी ओर 07 अक्टूबर को संध्या बेला पूजा करने का शुभ मुहूर्त इस प्रकार है। संध्या 06:01 बजे से लेकर 07:33 बजे तक लाभ मुहूर्त रहेगा। उसी प्रकार शाम 05:49 बजे से लेकर के 06:13 बजे तक गोधूलि मुहूर्त और 06:01 बजे से लेकर 07:14 बजे तक सायाह्य संध्या मुहूर्त रहेगा इस दौरान व्रतधारी महिलाएं विधि विधान से पूजा अर्चना कर सकती हैं।

जीउतिया पर्व की कथा महाभारत काल की

जिउतियां को जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहते हैं। इस कथा का प्रसंग महाभारत काल से जोड़ा जाता है। महाभारत युद्ध के बाद अश्वत्थामा पांडवों से काफी क्रोधित था, क्योंकि पांडवों ने झूठ बोलकर उनके पिता द्रोणाचार्य की हत्या कर दी थी।

उसी का बदला लेने के लिए अश्वत्थामा ताक में रहता था। एक रात पांडव शिविर में घुस कर उसने देखा पांच व्यक्ति सोए हुए हैं। उसने पांचो भाईयों को पांडव समझ कर उनकी हत्या कर दी।

सुबह पता चला कि यह पांचों पुत्र द्रोपदी की है। इसके बाद अश्वत्थामा ने निर्णय ले लिया कि जैसे द्रोपदी के पांचों पुत्रों की हत्या कर दी। उसी तरह उत्तरा के गर्भ में पलने वाले शिशु की भी हत्या कर देते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के कृपा से उत्तरा बनी मां

यही सोच कर उसने एक कठोर निर्णय लिया और अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र चला दिया। अस्त्र के सामने भगवान श्री कृष्ण की सुदर्शन चक्र भी काम नहीं आया।

उत्तरा के गर्भ नष्ट होने के बाद श्री कृष्ण ने अपने तपोबल से एक शिशु का जन्म दिया। इसीलिए इसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहते हैं। श्रीकृष्ण एक बच्चे का जान बचाई इसी परंपरा को निभाते हुए व्रती भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करती है।

चील और सियार की पौराणिक कथा

चील और सियार की कथा भी जिउतियां से जोड़कर देखा और सुना जाता है।

नर्मदा नदी के पास एक नगर था जिसका नाम है कंचनबटी। उस नगर के राजा का नाम मलयकेतु था। नर्मदा नदी के पश्चिम में बालूहटा नाम की मरू भूमि थी। जिसमें एक विशाल पाकुड़ का पेड़ था। पेड़ पर एक चील रहती थी। उसी पेड़ के नीचे एक बिल में सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेली थी। दोनों जो भी खाने का सामान लेकर आते थे, आपस में मिल बांट कर खाते थे।

चील ने देखा जीउतिया पूजन होते

एक दिन चील किसी गांव में गया और उसने जीउतिया व्रत और कथा सुनी। महिलाओं को पूजा करते हुए देखकर चील ने निश्चित किया कि वह भी जिउतिया व्रत करेेंगी। उसने सियारिन से कहा कि हम दोनों को जिउतियां व्रत करनी चाहिए। व्रत करने से अगले जन्म में हम दोनों का कल्याण होगा।

चील ने रखा निर्जला व्रत, सियारिन ने खाया खाना

चील और सियारिन दोनों ने दिन भर निर्जला व्रत रखा, परंतु शाम को सियारिन को भुख बर्दाश्त नहीं हुई और उसने भोजन कर लिया।

उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई। उसका दाह संस्कार उसी स्थान पर कर दिया गया। सियारिन को जब भूख लगने लगी थी मुर्दा देखकर वह खुद को रोक ना सकी और जमकर दावत उड़ाई। 

मांस खाने से उसकी व्रत टूट गयी। पर चील ने संयम रखा और नियम पूर्वक पूजा अर्चना कर अगले दिन व्रत का पारणा किया।

दोनों बहनें बनी ब्राह्मण की पुत्रियां

मृत्यु के बाद अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने एक ज्ञानी ब्राह्मण परिवार में सुंदर पुत्रियों के रूप में जन्म लिया। दोनों बहनों के पिता का नाम भास्कर था। चील बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन से हुआ।

सियारिन छोटी बहन के रूप में जन्मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया। उसकी शादी उसी राज्य के राजा मलयकेतु के साथ हुई। अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती को सात बेटे हुए।

चील से बनी ब्राह्मणी के पुत्र रहते थे जीवित

परन्तु कपूरावती के बच्चें जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों बेटें बड़े हो गए। सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपूरावती के मन में शीलवती के पुत्रों को देखकर ईर्ष्या की भावना आ गई।

बहन के सातों पुत्रों को मरवा डाली अपनी सगी बहन कपूरावती ने

उसने राजा से कहकर सभी सातों बेटों की सर कटवा दी। उन कटे सिर को नये बर्तन में रख दिया और लाल कपड़े से ढककर अपनी बहन शीलवती के पास भिजवा दी।

यह दृश्य देखकर भगवान जीऊतवाहन ने सातों भाइयों के सिर मिट्टी से बनाकर धड़ से जोड़ दिया। साथ ही मृतक शरीर पर अमृत छिड़ककर जिंदा कर दिएं।

बहन के घर पहुंचकर देखी सभी पुत्र हैं जीवित

दूसरी ओर रानी कपुरावती ने शीलवती अर्थात अपनी बहन के घर से सूचना पाने को काफी उत्साहित थी। जब काफी देर बाद भी सूचना नहीं आई तो स्वयं कपुरावती बड़ी बहन के घर गई। वहां सातों भाइयों को जिंदा देखकर वह दंग रह गई। जब उसे होश आया तो बड़ी बहन को उसको सारी बातें बता दी। अब उसे अपनी गलती पर शर्मिंदगी आ रही थी।

भगवान जिऊतवाहन की शक्ति जानी
भगवान जिऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गई। वह कपुरावती को लेकर उसी पाकुड़ बृक्ष के पास गई और उसे सारी बातें बताई। कपुरावती बेहोश होकर वहीं पर गिरकर मर गई। जब राजा को मरने की खबर मिली तो, उसने उसी जगह पर जाकर पाकुड़ वृक्ष के नीचे कपुरावती का दाह संस्कार कर दिया। 

राजा जीमूतवाहन की पौराणिक कथा 

पौराणिक काल की बात है । गंधर्व राज्य के एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न राजकुमार थे। जिनका नाम जीमूतवाहन था। जीमूतवाहन बड़े ही उदार, साहसी और परोपकारी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। जीमूतवाहन के पिता जब काफी बुढ़ा हो गए थे। एक दिन वन गमन के पूर्व उन्होंने अपने पुत्र जीमूतवाहन को अपना संपूर्ण राज-पाट सौंप दिया। राजा जीमूतवाहन का मन राजपाट में तनिक भी नहीं लग रहा था।

राजा जीमूतवाहन ने एक साहसी निर्णय लिया कि वह अपना समस्त राज-पाट अपने भाइयों को सौंपकर अपने पिता की सेवा करने जंगल की ओर प्रस्थान कर गए।

राजा जीमूतवाहन का विवाह मलयवती नाम की एक सुंदर और सुशील कन्या से हुई थी। एक दिन जब राजा जीमूत वाहन वन में भ्रमण कर रहे थे तो घूमते-घूमते राजा ने एक बुजुर्ग महिला को रोते हुए देखा। जब राजा जीमूतवाहन राजा ने बुढ़ी महिला से उसके रोने का कारण पूछा तो उस वृद्ध महिला ने बताया कि मैं नागवंशी स्त्री हूं और मेरा एक ही पुत्र है।जिसको आज गरूड़ पक्षीराज का आहार बनना है।

पक्षीराज गरुड़ के सामने सभी नागों ने एक प्रतिज्ञा ली है कि गरूड़ को भोजन के लिए प्रत्येक दिन एक नाग सर्प सौंपी जाएगी और आज उस प्रतिज्ञा के तहत मेरे पुत्र शंखचूड़ की बलि देने की बारी आई है। यह सुनकर राजा जीमूतवाहन ने उस बुजुर्ग महिला को धीरज बंधा हुए कहा कि डरो मत मां, मैं तुम्हारे पुत्र की सुरक्षा करूंगा।

बुढ़िया को आश्वासन देकर राजा जीमूत वाहन बुजुर्ग के पुत्र की जगह पर स्वयं ही लाल कपड़े में ढ़क कर एक चट्टान पर लेट गए और पक्षीराज गरुड़ की प्रतीक्षा करने लगे। तत्पश्चात समय होने पर पक्षीराज गरुड़ वहां आएं और लाल कपड़े में ढके जीमूतवाहन को अपने पंजे में दबाकर पहाड़ के शिखर की ओर उड़ चलें।

गरुड़ राज को अपने चंगुल में फंसे प्राणी के चीख सुनाई दिया, तो एकाएक चौक पड़े। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ तो उन्होंने लाल कपड़ा हटाकर देखा, तो एक मनुष्य था। पक्षीराज गरुड़ ने राजा जीमूत वाहन से उनका परिचय पूछा।

जीमूतवाहन ने गरुड़ जी को सारा किस्सा वृतांत कह सुनाया। गरुड़ जी जीमूतवाहन की बहादुरी, समर्पण और त्याग को देखकर बहुत ज्यादा प्रभावित हुए और उन्होंने प्रसन्न होकर जीमूत वाहन को जीवनदान दे दिया। इसके साथ ही सभी नागों को भी जीवन दान दे दिया ।

इस प्रकार राजा जीमूत वाहन के साहस, पराक्रम और हिम्मत ने पूरे नाग जाति की रक्षा की और तभी से अपने पुत्र की रक्षा के लिए जीमूतवाहन व्रत का प्रथा शुरू हो गया। प्रत्येक वर्ष आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के संध्या समय में पुत्रवती महिलाएं श्रद्धा और विश्वास से जीमूतवाहन निर्जला व्रत रखकर पूजा करती हैं।


डिस्क्लेमर

यह लेख पूरी तरह धार्मिक ग्रंथों, इंटरनेट और सामाजिक मान्यताओं पर आधारित है। पौराणिक कथा धार्मिक ग्रंथों से लिया गया है। शुभ और अशुभ मुहूर्त का उल्लेख पंचांगों पर आधारित है। यह लेखा लिखने का एक मात्र मकसद है सनातन धर्म का प्रचार प्रसार और अपने पौराणिक व्रत कथाओं के संबंध में संपूर्ण जानकारी धर्म-कर्म करने वाले पाठकों के तक पहुंचना है। यह लेख आपकों कैसा लगा, आप अपने प्रतिक्रिया हमारे ईमेल पर जरूर से जरूर भेजिएगा।

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