सनातन पंचांग के अनुसार हर वर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन गणेश चतुर्थी जन्मोत्सव मनाते हैं।
18 सितंबर दिन सोमवार तृतीया तिथि 12:39 बजे तक रहेगा। इसके बाद चतुर्थी तिथि प्रारंभ हो जाएगा।
मंगलवार 19 सितंबर को दिन के 01:48 बजे तक चतुर्थी तिथि रहेगा। इसके बाद पंचमी तिथि प्रारंभ हो जाएगा।
उदय कल में चतुर्थी तिथि पढ़ने के कारण गणेश चतुर्दशी व्रत मंगलवार को ही पड़ेगा अगर लोग चतुर्थी तिथि के दिन ही भगवान गणपति का पूजन करें तो सबसे अच्छा रहेगा।
गणेश चतुर्थी के दिन से 10 दिनों तक चलने वाले गणेश जन्मोत्सव की शुरुआत भी माना जाता है। गणेश चतुर्थी के दिन लोग अपने घरों में भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित कर दस दिनों तक पूजा-अर्चना करते रहते हैं।
दसवें दिन अर्थात अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान गणपति को विदाई देकर उनकी प्रतिमा का विसर्जन धूमधाम से भक्त करते हैं।
कालांतर से चली आ रही परंपरा के अनुसार किसी के परिवार में पांच दिन गणपति रखने की प्रथा है और अगर वह डेढ दिन अथवा सात दिन रखना चाहता है, तो ऐसा कर सकता है। इसके लिए उसे किसी धर्माचार्य से पूछने की जरूरत नहीं है। पौराणिक मान्यता के अनुसार पहले, दूसरे, तीसरे, छठे, सातवें अथवा दसवें दिन गणेशजी का विसर्जन कर सकते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो व्यक्ति भगवान गणेश की भक्ति भाव से पूजा-अर्चना करता है। वैसे लोगों के सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाते हैं। साथ ही जीवन आनंदमय हो जाता है।
गणेश चतुर्थी की रात चांद को देखना सख्त मना है
पौराणिक मान्यत है कि गणेश चतुर्थी के दिन चांद को देखना वर्जित है। एक बार गणेश चतुर्थी की रात भगवान श्री कृष्ण ने उगते हुए चांद को देख लिया था। चांद देखने के उपरांत भगवान श्री कृष्ण पर चोरी का इल्जाम लगा। महर्षि नारद के बताएं अनुसार गणेश चतुर्थी व्रत कर भगवान श्री कृष्णा चोरी के पाप से मुक्त हुए।
19 दिसंबर के दिन चंद्रोदय सुबह 09:45 बजे पर और चंद्रास्त रात 08:44 बजे पर होगा। दिन के समय तो चंद्रमा का दर्शन नहीं होगा। सूर्यास्त शाम 06:22 बजे होगा। इस प्रकार लोगों को शाम 06:22 बजे से लेकर रात 08:44 बजे तक आकाश में रहने वाले चांद का दर्शन नहीं करना चाहिए।
कैसे करें गणेश पूजन का शुभारंभ
गणेश चतुर्थी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान कर लें।
स्नान के उपरांत भगवान गणपति की प्रतिमा घर में स्थित मंदिर में स्थापित करें।
गणपति की प्रतिमा को ऊंचे स्थान पर स्थापना करें।
प्रतिमा के समक्ष शुद्ध घी का दीप प्रज्वलित करें।
गणपित भगवान को गंगा जल से जलाभिषेक करें।
पूजा पर बैठने वाले लोगों को इस दिन व्रत रखने चाहिए।
भगवान गणेश को विभिन्न प्रकार के सुगंधित पुष्प और इत्र अर्पित करें।
भगवान गणेश को दूर्वा घास विषेश रूप से पसंद है। इसलिए दूर्वा जरूर अर्पित करें।
भगवान गणेश को सिंदूर जरूर लगाएं।
पूजा के उपरांत भगवान गणपति का ध्यान करें।
गणेश जी को भोग मोदक या लड्डूओं से लगाने चाहिए।
अंत में भगवान गणपति की आरती और हवन जरूर करें।
जितना ज्यादा हो सके भगवान गणेश के ऊपर चढ़ाएं गए प्रसाद को लोगों के बीच वितरण करना चाहिए।
पूजा सामग्रियों की सूची
लकड़ी का स्टैंड, भगवान गणेश की एक प्रतिमा, सावा मीटर लाल कपड़ा, जनेऊ (जोड़ा) कलश (तांबे या पीतल का बर्तन), गंगा जल, रोली, पवित्र लाल धागा अर्थात मौली, चंदन, चावल, पवित्र घास दुर्वा, कलावा, इलायची, लौंग, सुपारी, घी, कपूर, मोदक अर्थात दुर्वा और हवन सामग्री। नारियल, पंचामृत (दूध, दही, गुड़, मधु और घी का मिश्रण), पांच प्रकार के सूखे मेवे अर्थात पंचमेवा,
भगवान गणपति की पूजा कैसे करें जानें पूरी विधि विधान के अनुसार
गणेश चतुर्थी के दिन पूजन करने के लिए भगवान गणेश की नई मूर्ति लाई जाती है। पूजा घर में रखी अन्य गणेश मूर्ति के अतिरिक्त, इस नई मूर्ति का स्वतंत्र रूप से पूजन किया जाता है। सर्वप्रथम आचमन कीजिए शुद्ध जल में गंगा जल मिलाकर, इसके बाद
देश और काल का उच्चारण कर पूजा विधि-विधान से करने के लिए संकल्प कीजिए। पूजन और संकल्प के उपरांत शंख, घंटा, दीप आदि पूजा संबंधी उपकरणों का पूजन किया जाता है तथा उसके उपरांत गणेशजी की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है ।
भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी के दिन मिट्टी का गणपति बनाते हैं । उसे बाएं हाथ पर रखकर वहीं उसकी ‘सिद्धिविनायक’ के नाम से प्राण प्रतिष्ठा करने के उपरांत पूजा कर अति शीघ्र ही विसर्जित करने की शास्त्रोचित विधि है।
मनुष्य उत्सव प्रिय है, इसलिए इतना करने पर उसका समाधान और मन नहीं भरता है। इसलिए डेढ, पांच, सात अथवा दस दिन तक भगवान गणेश जी को रखकर उसका उत्सव मनाने लगते हैं।
आसन पर ही करें गणेश प्रतिमा की स्थापना। जिस चौकी पर प्रतिमा की स्थापना करनी है, उस पर स्थापना के पूर्व साबुत चावल (धान्य) बिछाते हैं अर्थात चावलों पर प्रतिमा रखते हैं। मूर्ति में गणपति का आवाहन कर उसकी पूजा करने से प्रतिमा में शक्ति देव शक्ति का निर्माण होने लगते हैं।
जिससे चावल संचारित होते हैं। उदाहरण के रूप में समान कंपन वाले वीणा के दो तार हों, तो एक तार से ध्वनि अर्थात स्वर उत्पन्न करने पर वैसा ही ध्वनि दूसरी तार से भी उत्पन्न होता है।
उसी प्रकार मूर्ति के नीचे रखे चावलों में शक्ति के कंपन निर्मित होने से घर में रखे चावलों के भंडार में भी शक्ति से कंपन उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार शक्ति से पोषित चावल को सालोभर प्रसाद के रूप में ग्रहण कर सकते हैं ।
आचमन करने से आत्मा शुद्धि होती है। देश और काल का उच्चारण करना चाहिए ।
संकल्प के बिना किसी भी पूजा करने का फल मिलना कठिन होता है ।
आसन शुद्धि करने के लिए अपने आसन को स्पर्श कर नमस्कार करें और गंगा जल का छिड़काव करें ।
भगवान गणपति पूजन करने के लिए नारियल पर अथवा सुपारी पर गणपति का आवाहन कर उनका पूजन करें ।
पुुरुष सूक्त न्यास करने के लिए पुुरुष सूक्त मंत्र बोलते हुए पूजक को अपने हृदय, मस्तक, चोटी, मुख, दोनों नेत्र तथा शरीर के भ्रूमध्य स्थान पर देवता की स्थापना करें। ऐसा करने से आपके अंदर साकारात्मकता बढने में सहायता मिलती है ।
कलश पूजा करते समय सभी देवी-देवताओं, समुद्र तथा पवित्र नदियां आदि का आवाहन कर कलश को गंध, अक्षत एवं फूल चढाने चाहिए। इस सात्त्विक जल का पूजा करते समय प्रयोग में लाए।
शंख पूजा करते समय शंख धोकर उसमें जल भर लें। इसके बाद शंख पर गंध एवं श्वेत फूल चढाएं। शंख पर अक्षत तथा तुलसी दल चढाना वर्जित है ।
घंटा पूजा भी करें। देवताओं के स्वागत करने एवं राक्षसों को निकालने के लिए घंटा नाद करने चाहिए। घंटा को धोकर, बाएं हाथ में रखकर, उस पर गंध, अक्षत एवं फूल चढाएं।
दीया पूजा करना भी जरूरी होता है। दीपक पूजन करने के लिए उस पर गंध, अक्षत और फूल चढाएं।
गणपति की प्रतिमा पर बांधे विशिष्ट बंदनवार। मसलन कच्चे फल, कंद-मूल आदि का एकत्रित बंधन, जिसे गोवा राज्य में ‘माटोली’ कहते हैं। गणपति पर गंध, पुष्प एवं अक्षत चढाकर पूजा करें ।
पवित्रिकरण करें। शंख में पानी भरकर अपने दाहिने हाथेली में डालकर अपने ऊपर तथा पूजा सामग्री पर छिड़कने चाहिए।
दिकपाल पूजा करने के लिए हाथों में फूल और अक्षत लेकर सभी दिशाओं में छिड़काव करें। इसी को दिकपाल पूजा कहते हैं।
प्राण प्रतिष्ठा करके ही पूजन करें। देवता की प्रतिमा के हृदय पर दाहिना हाथ रख मंत्रों उच्चारण करें। गणेश चतुर्थी पर गणपति प्रतिमा अथवा नई मूर्ति स्थापित करने के लिए प्राण प्रतिष्ठा करने पड़ते हैं। इस समय सामान्य पूजा में नहीं किया जाता। क्योंकि प्रतिदिन पूजित प्रतिमा में ईश्वरीय शक्ति आ चुका होता है ।
पूजन करते समय गणपति का ध्यान कर ‘वक्रतुण्ड महाकाय’ इस मंत्र का उच्चारण करें।
आवाहन करना। गणपति को आमंत्रण के समय ‘ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः’ इस मंत्र का उच्चारण करते हुए अक्षत चढाएं। देवता का तत्त्व प्रतिमा में जल्दी आने में अक्षत सहायक होता है।
आसन को पूजने के लिए आसन अक्षत चढाएं।
पाद्य पूजन अर्थात पाद प्रक्षालन। चरण धोने के लिए जल से, फूलों से और दूर्वा से प्रतिमा के चरणों पर चढ़ाएं।
अर्घ्य कैसे दें। चम्मच में जल लेकर उसमें चंदन-गंध घोलकर, उस जल को फूल से भगवान गणपति के शरीर पर छिड़कने चाहिए । यह गुलाब जल छिड़ककर स्वागत करने के सामान है।
आचमन करवाना। देवतागण अर्थात गणपति आचमन कर रहे हैं, ऐसा मानकर हम आचमनी में जल लेकर देवताको चढाएं।
स्नान करवाना। गणपति पर आचमनी से जल डालकर स्नान कराना चाहिए ।
पंचामृत स्नान कैसे करें। सर्वप्रथम पंचामृत से (दूध, दही, घी, मधु एवं गुड़) स्नान कराएं । प्रत्येक बार आचमनी में पंचामृत लेकर स्नान कराएं। इसके बाद आचमन हेतु तीन बार आचमनी से पंचामृत डाले। अंत में चंदन, अक्षत और फूल चढाएं ।
पूर्व पूजा के उपरांत क्या करें। गंध, अक्षत, लाल फूल, धूप, दीप आदि से पूजा कर बचे हुए पंचामृत और मिठाइयों का भोग लगाएं। इसके लिए प्रतिमा के समक्ष जल का छोटा तालाब बनाकर उस पर पंचामृत रखें। (तालाब बनाने पर देवताओं के अतिरिक्त बुरी शक्तियां भोग ग्रहण करने नहीं आतीं है।)
देवताओं पर नैवेद्य (प्रसाद) चढ़ने की दो विधियां हैं।
विधि नंबर एक, कर्मकांड विधि के अनुसार नैवेद्य पर दो तुलसी पत्तों को जल से धोकर एक पत्ते को नैवेद्य पर रखें एवं दूसरा गणपति के चरणों में अर्पित करें। इसके बाद ‘प्राणाय स्वाहा…..’ सहित अन्य मंत्रों का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की पांचों उंगलियों से नैवेद्य की सुगंध गणपति की ओर ले जाएं ।
विधि नंबर दो के अंतर्गत भाव विधि आता है। इस विधि के अनुसार नैवेद्य पर दो तुलसी दलों (पत्तों) को शुद्ध जल में धोकर एक दल को नैवेद्य पर रखिए तथा दूसरे दल को गणपति के चरणों में अर्पित करें। इसके बाद हाथ जोडकर ‘प्राणाय स्वाहा….’ आदि मंत्रों से गणपति को नैवेद्य समर्पित करें।
पूजा के अंत में हाथ तथा मुंह धोने की क्रिया के संदर्भ में तीन बार ताम्रपात्र में जल अर्पित करें। गंध में फूल डूबोकर गणपतिको चढाएं। गणपति के समक्ष बीडा रखकर उस पर जल अर्पित करें। फूल चढ़कर प्रणाम कर ताम्रपात्र में जल अर्पित करें।
पूजा उपरांत अभिषेक किया जाता हैं। अथर्वशीर्ष या ब्रह्मणस्पति सूक्त से अभिषेक करना चाहिए। अभिषेक करते वक्त दूब अथवा लाल फूल से मूर्ति पर जल छिडकें।
वस्त्रा अर्पण करने के लिए रुई से बने दो लाल वस्त्र लेकर ‘समर्पयामि’ कहते हुए एक वस्त्र मूर्ति के गले में डालकर माला के समान पहनाएं। दूसरा वस्त्र मूर्ति के चरणों पर चढाएं।
यज्ञोपवीत के तहत भगवान गणपति को जनेऊ अर्पण करें ।
विलेपन अर्थात गणपति को तिलक लगाना कहते हैं। छोटी उंगली के पास वाली उंगली से (अनामिका से) चंदन लगाएं।
अक्षत अर्पण के तहत भगवान गणपति पर अक्षत चढाएं।
अन्य परिमलद्रव्य चढ़ाने के तहत भगवान गणपति को हलदी, कुमकुम, गुलाल और अष्टगंध आदि चढाएं।
भगवान गणपति पर लाल फूल अर्पित करें।
अंग पूजा के तहत भगवान गणपति के चरणों से मस्तक तक प्रत्येक अंग पर अक्षत अथवा फूल चढाते हैं ।
पुष्प पूजा के तहत हरेक तरह के फूलों को एक-एक करके भगवान के नाम लेते हुए की गणपति पर डंठल लगे हुए फूल चढाएं।
पत्र पूजा के तहत एक-एक प्रकार के पत्ते के साथ एक-एक विशिष्ट भगवान के नाम लेकर गणपति के चरणों पर चढाएं।
भगवान गणेश को आगे दी गई इक्कीस प्रकार की पत्री चढाकर पूजा करने चाहिए। बेल, श्वेत दूर्वा, मधुमालती (मालती), माका (भृंगराज), बेर, धतूरा, तुलसी, शमी, अर्जुन सादडा, चिचडा, बृहती (डोरली), पीपल, जाही करवीर (कनेर), मदार, विष्णुकांत, अनार, देवदार, मरुबक (मरवा), (चमेली), केवडा (केतकी) एवं अगस्त्य। देखा जाए तो गणेश चतुर्थी के अतिरिक्त अन्य दिन तुलसी दल गणपति को कभी नहीं चढ़ाया जाता है।
नाम पूजा : दूब को लाल चंदन में डुबोकर भगवान के नाम जपते हुए साथ एक-एक कर चढाएं।
धूप दर्शन के तहत धूप तथा अगरबत्ती गणपति के चारों ओर घुमाएं।
दीप दर्शन के तहत पंच बाती वाले दीप से भगवान गणपति को आरती करें ।
नैवेद्य अर्थात भोग को भगवान गणपति को भोग लगाएं।
तांबूल विधि के अनुसार भगवान गणपति के समक्ष बीडा रखकर उस पर जल अर्पित करें।
दक्षिणा देने के लिए भगवान गणपति के समक्ष पान के पत्ते पर दक्षिणा रखकर उस पर जल अर्पित करें।
फल अर्पण के तहत भगवान गणपति की ओर शिखा कर देवता के समक्ष नारियल रखें। उस पर जल अर्पित करें। नारियल न मिले तो उस ऋतु में उपलब्ध फलोें का प्रयोग करेें। भगवान गणपति के मुख के समक्ष नारियल की शिखा अर्थात जड़ को रखें। नारियल में देवता की शक्ति आती है। इसके बाद भक्त नारियल में विद्यमान शक्ति प्राप्त करने हेतु ‘प्रसाद’ के रूप में उसका सेवन करते हैं ।
गणपति की पूजा के अंत में आरती एवं प्रार्थना करने चाहिए।
पूजा के उपरांत भगवान गणेश को नमस्कार और परिक्रमा करने चाहिए। व्रतधारी गणपति को साष्टांग दंडवत करें और अपने चारों ओर तीन परिक्रमा लगाए।
मंत्र पुष्पांजलि अर्पित करते समय ‘ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत’ मंत्र के साथ पुष्पांजलि अर्पित करें।
भगवान गणपति को प्रार्थना करने के लिए ‘आवाहनं न जानामि’ इस मंत्र का जप करें। प्रार्थना कर हथेली पर जल लेकर उसे ताम्रपात्र में डाल दें।
दर्शनार्थियों को भी करें नमस्कार। भगवान गणपति पूजन के दौरान आरती एवं मंत्र पुष्पांजलि के लिए उपस्थित तथा दिनभर में कभी भी दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु, श्री गणेश को फूल तथा दूर्वा चढाकर साष्टांग दंडवत करें। घर के व्यक्ति आगंतुकों को प्रसाद दें।
तीर्थ प्राशन कैसे करें। ‘अकालमृत्युहरणं’ मंत्र का उच्चारण कर तीर्थ प्राशन करें ।
मध्य पूजा विधि। जब तक गणपति घर पर हैं, तब तक प्रतिदिन सुबह और शाम गणपति की पूजा करें। अंत में आरती, मंत्र पुष्प और प्रसाद का वितरण करें।
पूजा करने का शुभ मुहूर्त पंचांग के अनुसार
गणेश चतुर्थी के दिन अभिजित मुहूर्त 11:50 बजे से लेकर 12:39 बजे तक रहेगा। विजय मुहूर्त दिन के 02:17 बजे से लेकर 03:06 बजे तक रहेगा। गोधूलि मुहूर्त 06:10 बजे से लेकर 06:34 बजे तक रहेगा। सायाह्य संध्या मुहूर्त शाम 06:22 बजे से लेकर 07:33 बजे तक रहेगा।
पंचांग के अनुसार गणेश चतुर्थी के दिन पूजा करने का दो मुहूर्त बन रहा है। एक दोपहर को, तो दूसरा शाम को।
चौघड़िया मुहूर्त क्या कहता है पूजा करने के संबंध में
चौघड़िया मुहूर्त के अनुसार भगवान गणपति की पूजा करने का चर मुहूर्त सुबह 09:11 बजे से लेकर 10:43 बजे तक है। उसी प्रकार लाभ मुहूर्त सुबह 10:43 बजे से लेकर 12:15 बजे तक और अमृत मुहूर्त दिन के 12:15 बजे से लेकर 01:47 बजे तक है। शुभ मुहूर्त का आगमन दिन के 03:18 बजे से लेकर शाम 04:50 बजे तक रहेगा। यह पूजा करने का उत्तम और शुभ मुहूर्त है।
गणेश चतुर्थी का महत्व
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण पर स्यमन्तक मणि चोरी करने का झूठा तोहमत लगा था और वे समाज में अपमानित हुए थे। नारद जी ने श्रीकृष्ण को देखा और उनकी यह दुर्दशा देखकर उन्हें एक उपाय बताया। उन्होंने श्रीकृष्ण को कहा कि भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी को गलती से आप ने चंद्र दर्शन किए थे। इसलिए वे समाज से तिरस्कृत हुए हैं।
नारद मुनि ने श्रीकृष्ण को यह भी बताया कि एक दिन चंद्रमा को भगवान गणेश ने श्राप दिया था। इसलिए जो इस दिन चंद्र दर्शन करता है उसपर झूठा तोहमत लगता है।
नारद मुनि की सुझाव पर भगवान श्रीकृष्ण ने गणेश चतुर्थी का व्रत किया और चोरी के दोष से मुक्त हुए। इसलिए गणेश चतुर्थी के दिन पूजा और व्रत रखने से मनुष्यों को झूठे आरोपों से निजात मिलती है।
पौराणिक भारतीय संस्कृति में भगवान गणेश को विद्या-बुद्धि का प्रदाता, रक्षाकारक, सिद्धिदायक, समृद्धि, विघ्न-विनाशक, मंगलकारी, शक्ति और सम्मान प्रदायक माना गया है। वैसे तो प्रत्येक माह के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को संकष्टी गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है जबकि शुक्लपक्ष की चतुर्थी को वैनायकी गणेश चतुर्थी म रूप में मनाई जाती हैैैै।
वार्षिक गणेश चतुर्थी को भगवान गणेश जी को अवतार लेने के कारण उनके अनुयायी इस तिथि के आने पर व्रत रखकर उनकी विशेष पूजा करके पुण्य अर्जित करते हैं।
मंगलवार को यह गणेश चतुर्थी पड़ता है, तो उसे अंगारक गणेश चतुर्थी कहते हैं। जिसमें पूजा व व्रत करने से अनेक पापों का दमन होता है। उसी प्रकार अगर रविवार को यह चतुर्थी तिथि पड़े तो भी बहुत शुभ और श्रेष्ठ फलदायी मानी गई है।
गणेश जी से जुड़ी पौराणिक कथाएं
गणेश जी का कैसे हुआ जन्म
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती स्नान करने के लिए जा रही थीं। उसी समय माता पार्वती की सखियों ने कहा कि हे माता पार्वती भगवान शिव के अनेक दूत है।
दूत उनकी गोपनीयता की रक्षा करते हैं। जबकि आपके पास ऐसा कोई नहीं है। जब आप स्नान करती है, तब भगवान भोलेनाथ कभी भी आपके पास आ जाते हैं। इन्हें रोकने के लिए एक सुंदर, वरिष्ठ और तेजस्वी पुत्र की जरूरत है।
सखियों के कहने पर उन्होंने अपने शरीर के मैल से एक पुतला निर्मित कर उसमें प्राण फूंके और गृहरक्षा (घर की रक्षा) के लिए उसे द्वारपाल के रूप में नियुक्त कर दिया।
माता स्नान कर रही थी। द्वारपाल गणेश जी पहरा दे रहे थे। गृह में प्रवेश करने के लिए शिवजी के आने के बाद गणेश जी ने शिवजी को घर के अंदर प्रवेश करने पर रोका तो शंकरजी ने रुष्ट होकर युद्ध किया और उन्होंने उनका मस्तक काट दिया। जब पार्वती जी को इसका पता चला तो वह दुःख के मारे विलाप करने लगीं।
माता पार्वती को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने गज(हाथी) के बच्चें का सर काटकर गणेश जी के धड़ पर जोड़ दिया। गज का सिर जुड़ने के कारण ही उनका नाम गजानन पड़ा।
शनि के कुदृष्टि से कटा गणेश का सर
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार माता पार्वती और भोलेनाथ के विवाह हुए बहुत दिनों बाद भी एक भी संतान नहीं हुआ। संतान के सुख नहीं होने के कारण पार्वती जी ने श्रीकृष्ण के व्रत से गणेश जी को उत्पन्न किया। कैलाश में उत्सव का माहौल था।
शनि ग्रह बालक गणेश को देखने आए और उनकी दृष्टि पड़ने से गणेश जी का सिर कटकर ज़मीन पर गिर पड़ा। भगवान विष्णु जी के कृपा से दोबारा गणेश जी के धड़ को हाथी का सिर जोड़ दिया।
परशुराम ने तोड़े थे गणेश के दांत
पौराणिक मान्यता है कि एक बार परशुराम जी शिव-पार्वती जी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर आते थे। उस समय माता पार्वती और भोलेनाथ घोर निद्रा में थे।
दूसरी ओर गणेश जी घर के बाहर पहरा दे रहे थे। उन्होंने परशुराम जी को घर के अंदर जाने से रोका। इस पर दोनों में विवाद हुआ और अंततः परशुराम जी ने अपने अस्त्र परशु से उनका एक दांत तोड़ दिया। इसलिए गणेश जी ‘एकदन्त’ के नाम से जाना जाता है।
सबसे पहले भगवान गणेश की पूजा
किसी भी देव की आराधना या पूजा पाठ करते समय भगवान गणेश की प्रथम पूजा करने की परंपरा है। साथ ही किसी भी सत्कर्म व अनुष्ठान में, उत्तम-से-उत्तम और साधारण-से-साधारण कार्य में भी भगवान गणपति का स्मरण कर
उनका विधिवत पूजन किया जाता है।
इनकी पूजा के बिना कोई भी मांगलिक कार्य को शुरु नहीं होता है। यहां तक की किसी भी कार्यारम्भ के लिए लोग कहते हैं कि ‘श्री गणेश’ करे क्या ? यह एक मुहावरा बन गया है। हमारे धर्म शास्त्रों में इनकी पूजा सबसे पहले करने का स्पष्ट आदेश दिया गया है। ऋग्वेद-यजुर्वेद में लिखा है गणेशजी के मंत्र
गणेश जी की पूजा वैदिक, पौराणिक और अति प्राचीन काल से होती आ रही है। गणेश जी वैदिक काल के देवता हैं। ऋग्वेद-यजुर्वेद आदि शास्त्रों में गणपति जी के मन्त्रों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
भगवान विष्णु, भगवान भोलेनाथ, भगवान ब्रह्मा, सूर्यदेव के साथ-साथ गणेश जी का नाम सनातन धर्म के पांच प्रमुख देवों (पंच-देवता) में शामिल है। जिससे गणपति जी की प्रमुखता साफ़ पता चलती है।
गण’ का अर्थ होता है समुदाय, समुह, वर्ग और ईश का अर्थ होता है स्वामी या प्रमुख। देवगणों और शिवगणों के स्वामी होने के कारण उन्हें भगवान गणेश कहते हैं।
भगवान गणेश के पिता भगवान भोलेनाथ है जबकि मां पार्वती उनकी माता है। कार्तिकेय बड़ा भाई है। ऋद्धि-सिद्धि जो प्रजापति विश्वकर्मा की कन्याएं हैं। वे दोनो बहने गणेश जी की पत्नियां हैं।क्षेम व लाभ के गणेश जी का पुत्र है।
गणेश जी के बारह प्रसिद्ध नाम जो शास्त्रों में बताए गए हैं
इस प्रकार हैं: पहला सुमुख, दूसरा एकदंत, तीसरा कपिल, चौथा गजकर्ण, पांचवां लम्बोदर, छठा विकट, सातवां विघ्नविनाशन, आठवां विनायक, नौवां धूम्रकेतु, दसवां गणाध्यक्ष, ग्यारहवां. भालचंद्र और बारहवां गजानन।
गणेश जी ने महर्षि वेदव्यास के कहने पर महाभारत का लेखन-कार्य भी किया था। महर्षि वेदव्यास जब महाभारत की रचना करने का विचार कर रहे थे, तो उन्हें महाभारत लिखवाने की चिंता हुई। ब्रह्माजी के कहने पर यह कार्य महर्षि वेदव्यास ने गणेश जी से करवाया था।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ऊं को साक्षात गणेश जी का स्वरुप माना गया है। जिस प्रकार प्रत्येक मंगल कार्य से पहले गणेश-पूजन होता है, उसी प्रकार प्रत्येक मन्त्र से पहले ऊं शब्द लगाने से उस मन्त्र का प्रभाव हजार गुना बढ़ जाता है।
डिसक्लेमर
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