श्राद्ध कर्म के महत्वपूर्ण कारक कौन-कौन हैं। तिथि के अनुसार श्राद्ध क्यों करना चाहिए।
पितरों के लिए प्रतिवर्ष आयोजित वार्षिक श्राद्ध, पितृ पक्ष और महालया श्राद्ध में क्या अंतर है।
अपनी मृतक पत्नी की श्राद्ध किस तिथि को करनी चाहिए।
श्राद्ध का महीना ज्ञात हो परंतु तिथि ज्ञात ना हो तब उस महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि या कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि अथवा अमावस्या तिथि के दिन श्राद्ध करना क्यों जरूरी है।
शाम के समय, रात के समय, संधि काल और मध्य रात्रि में श्राद्ध करना क्यों मना है
मृत पत्नी की श्राद्ध कर्म करने का सबसे उचित तिथि नवमी तिथि है। इस दिन श्राद्ध कर्म करने पर मृतक की आत्मा को पूर्ण संतुष्टि मिलती है।
मृतक पत्नी की श्राद्ध कब करें
मृतक पत्नी का श्राद्ध नवमी तिथि को करनी चाहिए। नवमी के दिन ब्रह्मांड में रजोगुणी पृथ्वी-तत्त्व तथा आप-तत्त्व से संबंधित शिव तरंगों की अधिकता रहती है। ये शिव-तरंगें श्राद्ध में प्रक्षेपित होने वाली मंत्र-तरंगों की सहायता से सुहागन की लिंग देह को प्राप्त होती हैं । इस दिन शिव तरंगों का प्रवाह भूतत्त्व और आपतत्त्व से मिलकर संबंधित लिंग देह को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने में सहायता करता है
इस दिन शिव तरंगों की अधिकता के कारण सुहागिन को सूक्ष्म शिव-तत्त्व जल्दी मिलता है । फल स्वरूप, उसके शरीर में स्थित सांसारिक आसक्ति के गहरे संस्कारों से युक्त बंधन टूटते हैं, जिससे उसे पति-बंधन से मुक्त होने में सहायता मिलती है। इसलिए, रजोगुणी शक्ति रूप की प्रतीक सुहागिन का श्राद्ध महालय (पितृपक्ष) में शिव तरंगों की अधिकता दर्शाने वाली नवमी तिथि के दिन करना चाहिए ।
संध्याकाल, रात्रि काल और संधि काल के आसपास जो समय बित रहा है, उस समय वायुमंडल रज और तम गुणों से दूषित रहता है। अतः जब लिंग देह श्राद्ध स्थल पर आते हैं तब उनके दुष्ट आत्मा के चंगुल में फंसने की आशंका अधिक हो जाती है। इसलिए उपयुक्त काल में श्राद्ध करना मना है।
मृत्यु तिथि पर क्यों करना चाहिए श्राद्ध
व्यक्ति जिस तिथि और दिन को जन्म लेता है। अगर संयोग बस उस तिथि और जन्म श्राद्घ के समय आ जाए तो जीव के नाम से किए जाने वाले कार्य उसे ऊर्जा प्रदान करता है। श्राद्ध कार्य उस तिथि, समय और मुहूर्त पर करना लाभप्रद होता है।
उस दिन उन कर्मों का कालचक्र उनका प्रत्यक्ष होना तथा उसका परिणाम इन सभी के स्पंदन एक दूसरे के लिए सहायक होते हैं। जन्मतिथि विशिष्ट घटनाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक तरंगों को सक्रिय करती है। इसलिए मृतक तिथि के दिन श्राद्ध करना अति उत्तम और श्रेष्ठ होता है।
पितृपक्ष में ही क्यों करें श्राद्ध व पिंडदान
पितृपक्ष में वायुमंडल में रज-तमात्मक तथा यम तरंगों की अधिकता होती है। इसलिए पितृपक्ष में श्राद्ध करने से रज-तमात्मक कोष वाले पितरों के लिए पृथ्वी के वायुमंडल में आना आसान हो जाता है । इससे ज्ञात होता है कि हिन्दू धर्म में बताए गए धार्मिक कृत्य विशिष्ट काल में करना अधिक कल्याणकारी है।
वार्षिक श्राद्ध करने के बाद भी पितृ पक्ष में श्राद्ध करना क्यों आवश्यक है
वार्षिक श्राद्ध या पुण्यतिथि मनाने पर सिर्फ एक पितर का और पितृपक्ष में श्राद्ध करने पर सभी पितरों को मुक्ति मिल जाती है। वार्षिक श्राद्ध किसी एक व्यक्ति की मृत्यु तिथि पर किया जाता है। इसलिए, ऐसे श्राद्ध से उस विशेष पितर को मुक्ति मिलती है और उसका ऋण चुकाने में सहायता होती है । यह हिन्दू धर्म में व्यक्तिगत स्तर पर ऋण मुक्ति की एकल उपासना है।
दूसरी ओर पितृपक्ष में श्राद्ध कर सभी पितरों का ऋण चुकाना, समाजिक उपासना है । व्यष्टि ऋण चुकाने से उस विशेष पितर के प्रति कर्तव्य पालन होता है तथा समष्टि ऋण चुकाने से एक साथ सभी पितरों से लेन-देन पूरा होता है। जिनसे हमारा घनिष्ठ संबंध होता है।
उसी तरह इस आसक्ति-बंधन से मुक्त कराने के लिए वार्षिक श्राद्ध करना आवश्यक होता है । इनकी तुलना में उनके पहले के पितरों से हमारा उतना गहरा संबंध नहीं रहता। उनके लिए पितृपक्ष में सामूहिक श्राद्ध करना उचित है। इसलिए, वार्षिक श्राद्ध तथा पितृपक्ष का महालय श्राद्ध, दोनों करना आवश्यक है।
संध्या काल, रात्रि काल और संधि काल में वर्जित है श्राद्ध करना
संध्या काल, रात्रि काल और संधि काल के निकट के समय में लिंग देहों से संबंधित ऊर्जा-तरंगों का प्रवाह तीव्र रहता है । इसका लाभ उठाकर अनेक अनिष्ट शक्तियां इस गतिमान ऊर्जा स्रोत के साथ पृथ्वी के वायुमंडल में आती हैं । इसलिए, इस समय को ‘रज-तम तरंगों के आगमन का समय भी कहते हैं ।
संध्या काल में तिर्यक तरंगें अधिकता रहती हैं। संधि काल में विस्फुटित तरंगें की अधिकता रहती हैं। तथा रात्रि के समय विस्फुटित, तिर्यक और यम तीनों प्रकार की तरंगें एक साथ बहती रहती हैं । इसलिए, इस समय वातावरण अत्यंत ऊष्ण ऊर्जा से प्रभारित रहता है । श्राद्ध के समय जब विशिष्ट पितर के लिए संकल्प और आवाहन किया जाता है, तब उनका वासना युक्त लिंग देह वायुमंडल में आता है ।
पूर्वज पड़ जाते हैं बुरी शक्तियों के चंगुल में
ऐसे समय यदि वायुमंडल रज-तम कणों से प्रभारित रहेगा, तब उसमें संचार करने वाली अनिष्ट शक्तियां, पितरों का मार्ग रोक सकती हैं । कभी-कभी तो दुष्ट शक्तियां किसी पितर को अपने नियंत्रण में लेकर उनसे बुरा कर्म करवाते हैं । इससे उन्हें नरक वास भोगना पडता है । इसलिए, यथा संभव वर्जित समय में श्राद्धादि कर्म नहीं करने चाहिए।
इससे पता चलता है कि हिन्दू धर्म में बताए गए कर्मों का विधि सहित पालन करना कितना महत्त्वपूर्ण है । विधि-विधान से धर्मकर्म करने पर ही इष्ट फल की प्राप्ति होती है ।
संध्या समय श्राद्ध करना मना है
सायं काल के समय में प्रचूर मात्रा में रज-तम तरंगों से भरा रहता है । उस समय ब्रह्मांड में भी पृथ्वी और आप तत्त्वों की सहयोग से सक्रिय रज-तमात्मक तरंगें की मात्रा अधिक होती हैं। ये तरंगें भारी होने के कारण इनका आकर्षण नीचे अर्थात पाताल की ओर होता है । इन तरंगों से वातावरण में निर्मित अति दबाव वाले क्षेत्र के कारण, धरती से संबंधित तिर्यक एवं विस्फुटित तरंगें सक्रिय होती हैं। संध्या के समय श्राद्ध और तर्पण करने से हमारे पूर्वज दुष्ट शक्तियों के चंगुल में फंसकर पाताल लोक चले जाते हैं। इसलिए संध्या समय श्राद्ध नहीं करनी चाहिए।