हिरण्यकशिपु ने मरते समय क्या कहा नरसिंह प्रभु से, जानें नरसिंह पुराण से

 

जो मनुष्य भगवान नरसिंह के इस महात्म्य को पढ़ेगा या सुनेगा, वह सब पापों से हो जायेगा मुक्त 

पापिओं को तिनका का भी सहारा नहीं मिलता
हिरण्यकशिपु को भगवान नृसिंह अपने जांध पर रखकर उसके छाती को अपने धारीदर  नाखुनों से फाड़ रहे थे, तब दुष्ट राक्षस मन ही मन सोचने लगा कि हाय ? भयंकर युद्ध के समय देवराज इंद्र के वाहन गजराज एरावत के मुसल जैसे दांत जहां टकराकर टुकड़े टुकड़े हो गए थे। वहीं पिनाकपाणि महादेव के फरसे की तीखी धार भी कुण्ठि हो गयी थी। 
अद्भूत वरदान का स्वामी था हिरण्यकशिपु

वही मेरा वक्षस्थल इस समय नृसिंह के नाखूनों द्वारा फाड़ा जा रहा है। जब भाग्य खोटा हो जाता है तब तिनका भी प्रायः अनादर करने लगता हैं। भगवान नरसिंह अवतार दुष्ट हिरण्यकशिपु को मारने के लिए हुआ था।
 ईश्वरीय वरदान था कि हिरण्यकशिपु न, तो दिन में मरेगा ना रात को, न पर्वत पर न मैदान में और न नर के हाथों मारा जायेगा और न ही राक्षस या जानवर ही मार पायेंगे। ऐसे वरदान पाए 
शिवजी के फरसा व एरावत हाथी के दांत भी हिरण्यकशिपु के वज्र शरीर पर हुआ नाकाम

हिरण्यकशिपु अपने आप को अमर समझने लगा था। मृत्यु को निकट देख हिरण्यकशिपु मन ही मन सोचने लगा कि हाय भयंकर युद्ध के समय देवराज इंद्र के वाहन गजराज एरावत के मुसल जैसे दांत जहां टकराकर टुकड़े टुकड़े हो गए थे। वहीं पिनाकपाणि महादेव के फरसे  की तीखी धार भी कुण्ठि हो गयी थी। वही मेरा वक्षस्थल इस समय नृसिंह के नाखूनों द्वारा फाड़ा जा जा रहा है। जब भाग्य खोटा हो जाता है तब तिनका भी प्रायः अनादर करने लगता हैं। अब जाने पूरे विस्तार से कथा नरसिंह पुराण के अनुसार।
हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को दी चुनौती और कहा कहां है विष्णु

विभिन्न प्रकार से प्रयास करने के बाद भी प्रह्लाद को मृत्यु न दे सका हिरण्यकशिपु। तब मृत्यु के निकट पहुंचने वाले के भांति अकारण ही क्रोध करने वाले उस दुष्ट ने पुत्र प्रह्लाद को उच्च स्वर से डांटते हुए कहा, अरे मूर्ख ? तू मेरा, यह अंतिम और अटल वचन सुन, इसके बाद मैं तुझसे कुछ न कहूंगा। इसे सुनकर तेरी जैसी इच्छा हो वही करना। यह कह कर उसने शीघ्र ही चंद्रहास नामक अपनी तलवार खींच ली। उस समय सब लोग उसकी ओर आश्चर्य पूर्वक देखने लगे। उसने तलवार चलाते हुए पुनः प्रह्लाद से कहा। अरे, मूढ़ तेरा विष्णु कहां है ? आज वह तेरी रक्षा कैसे करेंगे, आज मैं देखना चाहता हूं। तुने कहा था कि वह सवंत्र है। फिर इस खंभे में क्यों नहीं दिखाई देता। यदि तेरे विष्णु को मैं इस खंभे के भीतर देख लूंगा तब तो तुझे नहीं मारूंगा यदि ऐसा न हुआ तो इस तलवार से तेरे दो टुकड़े कर दिए जाएंगे। 
खंभे से प्रगट हुए भगवान भगवान नरसिंह

प्रह्लाद भी ऐसी बात देखकर उस परमेश्वर का ध्यान किया और पहले कहें हुए उनके वचनों को याद करके हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया, इतने में ही दैत्य नंदन प्रह्लाद ने देखा कि वह दर्पण के समान स्वच्छ खंभा जो अभी तक खड़ा था दैत्यराज की तलवार के आघात से फट गया तथा उसके भीतर अनेक योजन विस्तार वाला अत्यंत रौद्र एवं महाकाय नृसिंह रूप दिखाई दिया जो, दानवों को भयभीत करने वाला था। उसके बड़े बड़े नेत्र, विशाल मुख, बड़ी-बड़ी दाढ़े और लंबी लंबी भुजाएं थी। उसके नख बहुत बड़े और पैर विशाल थे। उसका मुंह कालग्नि के समान देदीप्यमान था। जबड़ा कान तक फैले हुए थे और वह बहुत भयानक दिखाई दे रहा था।
भगवान नरसिंह के विकराल रूप देख विस्मित हुए प्रह्लाद

इस प्रकार नरसिंह रूप धारण कर त्रिविक्रम भगवान विष्णु खंभे के भीतर से निकल पड़े और लगे बड़े जोर जोर से दहाड़ने। नरेश्वर ? यह गर्जना सुन कर दैत्यों ने भगवान नरसिंह को घेर लिया, तब उन्होंने अपने पौरुष एवं पराक्रम से उन सब को मौत के घाट उतार कर हिरण्यकशिपु का दिव्य  सभा भवन नष्ट कर दिया। उस समय जिन महाभटों ने निकट आकर नरसिंह जी को रोका। उन सबको उन्होंने क्षण भर में मार डाला। इसके बाद प्रतापी नरसिंह भगवान पर असुर सैनिक अस्त्र और शस्त्रों की वर्षा करने लगे।
भगवान नरसिंह ने ८० लाख दानवों का किया संहार

भगवान नरसिंह क्षण भर में ही अपने तेज से समस्त दैत्य सेना का संहार कर दिया और दसों दिशाओं को अपने गर्जन से गुंजाते हुए वे भयंकर सिंहनाद करने लगे। उपयुक्त दैत्यों को मरा जान महासुर हिरण्यकशिपु पुनः हाथ में शस्त्र लिए हुए 88,000 असुर सेना को नरसिंह देव से लड़ने की आज्ञा दी। 
उन असुरों ने भी आकर भगवान को सब ओर से घेर लिया। तब युद्ध में लड़ते हुए भगवान उन सभी का वध करके पुनः सिंहनाद करने लगे। उन्होंने हिरण्यकशिपु के दूसरे सुंदर सभा भवन को भी पुनः नष्ट कर दिया।
नरसिंह प्रभु के गर्जना सुन भाग खड़े हुए दानव

 अपने भेजे हुए उन असुरों को मारा गया जान क्रोध से लाल लाल आंखें करके महाबली हिरण्यकशिपु स्वयं बाहर निकला और बलाभिमानी दानवों से बोला अरे इसे पकड़ो- पकड़ो मार डालो-मार डालो। इस प्रकार कहते हुए हिरण्यकशिपु के सामने ही युद्ध करने वालों सभी महान असुरों का रण में ही संहार करके भगवान नरसिंह गरजने लगे। तब मरने से बचे हुए दैत्य दसों दिशाओं में वेग पूर्वक भाग चलें।
नरसिंह प्नभु ने हिरण्यकशिपु का छाती दिया फाड़

जब तक सूर्य देव अस्ताचल को नहीं चले गए, तब तक भगवान नरसिंह अपने साथ युद्ध करने वाले हजारों करोड़ों दैत्यों का संहार करते रहे, किंतु जब सूर्य डुबने लगे तब महाबली भगवान नरसिंह ने अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने में कुशल हिरण्यकशिपु को बड़े वेग से पकड़ लिया फिर संध्या के समय घर के दरवाजे पर बैठकर उस ब्रज के समान कठोर विशाल वक्ष वाले शत्रु को अपनी जांघों पर गिरा कर जब भगवान नरसिंह ने रोष पूर्वक नखों से पत्ते की भांति उसे विदोर्ण करने लगे। तब उस असुर ने जीवन से निराश होकर मन ही मन सोचने लगा कि हाय भयंकर युद्ध के समय देवराज इंद्र के वाहन गजराज एरावत के मुसल जैसे दांत जहां टकराकर टुकड़े टुकड़े हो गए थे। वहीं पिनाकपाणि महादेव के फरसे की तीखी धार भी कुण्ठि हो गयी थी। वही मेरा वक्षस्थल इस समय नृसिंह के नाखूनों द्वारा फाड़ा जा जा रहा है। जब भाग्य खोटा हो जाता है तब तिनका भी प्रायः अनादर करने लगता हैं। 
हिरण्यकशिपु के शरीर को दो टुकड़े किए भगवान नरसिंह

दैत्य राज हिरण्यकशिपु इस प्रकार कह ही रहा था कि भगवान नरसिंह ने उसका ह्रदयदेश विदिर्ण कर दिया। ठीक उसी तरह जैसे हाथी कमल के पत्ते को अनायास ही छिन्न-भिन्न कर देता है। उसके शरीर के दोनों टुकड़े महात्मा नरसिंह के नखों के छेद में घुसकर छुप गए। तब भगवान सब ओर देखकर अत्यंत विस्मित होकर सोचने लगे, ओह? दुष्ट कहां चला गया। जान पड़ता है मेरा यह सारा उद्योग ही व्यर्थ हो गया।
 महाबली नरसिंह इस प्रकार चिंता में पड़कर अपने दोनों हाथों को बड़े जोर से झाड़ने लगे। फिर छोटे-छोटे टुकड़े भगवान के नखछिद्र से निकलकर भूमि पर गिर पड़े।
 वे कुचलकर धूलिकण के समान हो गए थे। यह देखकर रोषहीन हों वे परमेश्वर हंसने लगे। उसी समय ब्रह्मादि सहित सभी देवता गण अत्यंत प्रसन्न हो वहां आए और भगवान नरसिंह के मस्तक पर फूलों की बारिश करने लगे। पास आकर उन सबने उस परम प्रभु नरसिंह देव का पूजन किया।
ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद को दैत्यों का राजा बनाया
उसके बाद ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद को दैत्यों के राजा के पद पर प्रतिष्ठित किया। उस समय समस्त प्राणियों का धर्म में अनुराग हो गया। संपूर्ण देवताओं सहित भगवान विष्णु ने देवराज इंद्र को स्वर्ग के राज्य पद पर स्थापित किया। भगवान नरसिंह भी संपूर्ण लोकों के हित करने के लिए श्रीशैल के शिखर पर जा पहुंचे वहां देवताओं से पूजित हो प्रसिद्धि को प्राप्त किए। भक्तों के हित और अभक्तों का नाश करने के लिए वहां पर रहने लगे।
  जो मनुष्य भगवान नरसिंह के इस महात्म्य को पढ़ता है अथवा सुनता है वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।

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