हर मनुष्य के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न होता है कि प्राण कहां से आया है।
किस प्रकार से हमारे शरीर में प्रवेश करता है तथा अपना विभाग बना करके किस प्रकार से शरीर को गतिमान रखता है।
यह यक्ष प्रश्न सभी के मन में कभी न कभी आता ही है।
इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्रश्नो उनिषद मैं मिलता है। इस महाकाव्य में आत्मा और प्राण के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है।
प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार मनुष्य शरीर से छाया उत्पन्न होता है, उसी प्रकार आत्मा में प्राण व्याप्त है। तथा यह मनोकृत और संकल्पादि (संकल्प) इस शरीर में आ पाता है। यह उपयुक्त प्राण आत्मा परम पुरुष (अक्षर) यानी सत्य से उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए, जिस प्रकार संसार में सिर तथा हाथ पाव वाले पुरुष रूप में रहते हुए ही उससे होने वाली छाया उत्पन्न होती है। उसी प्रकार इस ब्रह्म यानी सत्पुरुष में यह छाया रहती है।
शरीर में प्राण की स्थिति
हमारे शरीर में प्राण क्या करती है। इस पर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। जिस प्रकार संसार में राजा ही गांव में अधिकारियों को नियुक्त करता है। तुम इस गांव में निवास करो और अपने अधिकार का उपयोग करो। उसी प्रकार मनुष्य का प्राण भी अपने भेद स्वरूप आंख, नाक, कान आदि अन्य प्राण को अलग अलग उनके स्थानों के अनुरूप स्थापित करता है।आत्मा कहां रहता है शरीर में,
शरीर में आत्मा अर्थात जीवात्मा हृदय यानी कमल जैसा मांस पिंड से गिरा हुआ हृदय कश में रहता है। इस ह्रदय में एक सौ एक प्रधान नाडियां है। उसमें से प्रत्येक प्रधान नाडी के सौ-सौ भेद होते हैं। प्रधान नाडी के उन सौ-सौ भेदों में से प्रत्येक में बहत्तर-बहत्तर प्रतिशाखा नाडियां है। इस प्रकार प्रधान नाडियों में प्रत्येक सौ सौ नाडियों में हजार नाडियां हैं। यह नाडियां सांस का संचालन करता है। जिस प्रकार सूर्य से किरणें निकलती है। उसी प्रकार हृदय से निकल कर सब ओर फैली हुई नाडियां द्वारा सांस से पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है।