नारद केेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे श्रप का फल श्रीहरि को मिला त्रेतायुग में
श्रीहरि ने माया से मुक्त किया नारद को
नारद के शाप से रूद्रगण बनें राक्षस
ब्रह्मापुत्र नारद हिमालय के एक गुफा में बहुत दिनों से तपस्या कर रहे थें। उन्होंने दृढ़ता पूर्वक समाधि लगाई थी। नारद जी के उग्र तप का समाचार सुन देवराज इंद्र कांप उठे। देवदास को शंका हुई की नारदजी अपने तप-वल से स्वर्ग लोक पर कब्जा कर लेंगे।
देवराज ने कामदेव से बोला जाकर नारदजी का तप भंग कर दो। आज्ञा पाकर कामदेव वसंत को लेकर बड़े गर्व से उस स्थान पर गए और अपनी सारी कलाएं रच डाली। कामदेव और वसंत के बहुत प्रयत्न करने के बाद भी नारद के मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। महादेव की कृपा से दोनों का गर्व चूर्ण हों गया। यह प्रसंग शिवपुराण में है।
ऐसा कैसे संभव हुआ
नारदजी कामदेव और वसंत की माया से इसलिए बच पाएं क्योंकि इसी स्थान पर भगवान भोलेनाथ ने समाधि ली थी। भोलेनाथ की समाधि को भंग करने की मनसा से कामदेव ने भोलेनाथ पर काम-वासना का बाण चलाया था। समाधि भंग होते ही भोले शंकर ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया। कामदेव की पत्नी ने महादेव से बिलखते हुए अपने पति को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की तथा सभी देवताओं ने भी कामदेव को जीवित करने की बात कहीं। भोलेनाथ ने कामदेव को उचित समय पर जींदा करने की बात कही। महादेव जी ने कहा इस स्थान पर और इसके आसपास जहां तक भस्म दिखाई देती है । वहां तक की पृथ्वी पर कामदेव की माया और काम वाण का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसलिए कामदेव लज्जित होकर चले गए थे।
भोलेनाथ के मना करने के बाद भी नारद जी अपने पिता ब्रह्मा जी के पास ब्रह्म लोक पहुंच गए । उन्हें भी सारा वृतांत कह सुनाएं । ब्रह्मा जी ने पुत्र की अज्ञानता को जानते हुए शिवजी के कहे अनुसार चलने की नसीहत अपने पुत्र नारद को दी।
भगवान विष्णु के माया में फंसे नारद
नारद जी के मन में अभिमान के अंकुर उत्पन्न हो गए थे । जिसके फल स्वरूप उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी । वहीं तुरंत विष्णु लोक पहुंच कर भगवान श्री हरि को अपनी कृति कह सुनाई। भगवान विष्णु ने नारदजी से कहा आपकी कृर्ति एवं निर्मल बुद्धि धन्य है । काम , क्रोध एवं लोभ माया उन मनुष्यों को पीड़ित करते हैं जो भक्ति हीन हैं । आप तो ज्ञान बैराग से युक्त ब्रह्मचारी हैं। फिर भला कामदेव आपका क्या बिगाड़ सकता है।
श्रीहरि से नारद ने मांगा अपना रूप
भगवान विष्णु ने भोलेनाथ की कृपा से एक अद्भुभूत माया रची और सुंदर नगर बना दिया। वह नगर बैकुंठ लोक से भी रमणीय था। उस नगर के राजा का नाम शीलनीधि था। राजा की एक सुंदर कन्या जिसका नाम श्रीमती थी। उन्होंने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया था। नगर की शोभा देख नारद जी मोहित हो गए। राजा शीलनिधि ने नारदजी जी को आदर सत्कार के साथ स्वर्ण सिहासन पर बैठाया और अपनी पुत्री का भाग्य और गुण-दोष बताने को कहा। हाथ देखा तो कन्या साक्षात लक्ष्मी थी। इसका भावी पति भगवान शंकर के समान वैभवशाली, त्रिलोकजयी वीर तथा कामदेव को जीतने वाला होगा। नारद के मन में राजकुमारी से विवाह करने की इच्छा जाग उठी।
नारदजी ने सोचा नारियों को सुंदरता रूप पसंद है। इसलिए वो सीधे विष्णु लोक गए । नारद जी ने श्रीहरि को राजा और भी उसकी पुत्री की विवाह की कथा सुनायी । उक्त कन्या से विवाह करने कि इच्छा प्रगट की। उन्होंने भगवान विष्णु से अपना सुंदर रूप देने की बात कही। भगवान विष्णु ने नारदजी को वानर का चेहरा तथा शेष अंग अपना मनोहर रूप प्रदान कर दिया।
स्वयंवर में पहुंचे नारद
स्वयंवर में नारदजी जाकर बैठ गए। सभा में रूद्रगन ब्राम्हण के रूप धरकर बैठे थे । नारद जी का वानर रूप केवल कन्या और रुद्रगन को दिखाएं पढ़ रहा था। बाकी सब को नारद जी का वास्तविक रूप दिख रहा था । कन्या अपनी सहेलियों के साथ आई तो नारदजी को वानर का रूप और भगवान विष्णु जी जैसा शरीर देखकर कुपित हो गई और अंत में राजा का रूप धरे भगवान विष्णु के गले में वरमाला डाल दी। यह देखकर नारद जी विचलित हो गए । रूद्रगन ने नारदजी को अपनी असली चेहरा देखने को कहा।
शापित हुए रूद्रगन
शापित हुए विष्णु
नारदजी विष्णु लोक पहुंचकर श्रीहरि से बोले तुम बड़े दुष्ट हो, अपने कपट से विश्व को मोहने वाले तुम दूसरे को सुखी नहीं देख सकते । सागर मंथन के समय मोहनी का रूप धरकर दानवों का अमृत कलश छीन लिया था और उन्हें अमृत की जगह मदिरा पिला कर पागल कर दिया था । आज तक तुम्हें किसी शक्तिशाली मानव से पाला नहीं पड़ा है ।तुम्हारी करनी का फल मिलेगा। विष्णु को श्राप देते हुए उन्होंने कहा तुमने स्त्री के लिए मुझे व्याकुल किया है।